नागार्जुन के उपन्यासों में जन-आंदोलन का विकास
नागार्जुन के उपन्यासों में जन-आंदोलन का विकास
अजय कुमार चौधरी
आधुनिक
हिन्दी साहित्य में प्रगतिवादी धारा के प्रमुख रचनाकार नागार्जुन हिन्दी के उन
विरल उपन्यासकारों में हैं जिन्होंने आजीवन समान्यजन विशेषतःकिसान-मजदूर वर्ग की
शोषण –मुक्ति के लिए साहित्य को हथियार बनाया | इनकी लेखनी उन तमाम सर्वहारा वर्ग को पर केन्द्रित है, जो आजीवन पूँजीपतियों, जमींदारों और बुर्जुआ वर्ग
के तीन पाटों के बीच सदियों से पीसते आ रहे हैं | नागार्जुन
यदि चाहते तो अन्य उपन्यासकारों की तरह राजपथ पर चलते हुए सुख का जीवन जी सकते थे
परंतु सर्वहारा वर्ग की दुख और वेदना उन्हें
राजपथ को छोड़कर जनपथ की ओर मुड़ने के लिए विवश कर दिया | साहित्यकार अपनी संवेदना और सहानुभूति के आधार पर अपनी लेखनी का क्षेत्र
तय करते हैं | ऐसे में हम देखते है उनकी संवेदना और
सहानुभूति किसान-मजदूर, शोषित, दलित,उत्पीड़ित वर्ग के प्रति है | उनके साहित्य में
वर्णित घटना, विचारधारा, दृष्टि, संवेदना, कला और भाषा – इन सभी स्तरों पर नागार्जुन
का समग्र साहित्य जन-प्रतिबद्ध है | दरअसल मानवोचित अधिकार,
राजनीतिक, सांस्कृतिक समानता तथा न्याय की
लड़ाई अपने लेखनी के माध्यम से जारी रखते हैं
| इसलिए समाज
का शोषित-दलित-वंचित वर्ग इनके संवेदना और
सहानुभूति का विशेष भाजन बना , 1“किन्तु
उसकी संवेदना उस वर्ग के प्रति सहानुभूति नहीं जगाती बल्कि उसके विषम दशा के
कारणों की पड़ताल के लिए उकसाती हुई उसके पक्ष में एक तरफ से मोर्चे बंदी के लिए
अभिप्रेरित करती है | इस तरह उसका साहित्य सक्रिय प्रतिरोध
का साहित्य बन गया |” इन्होंने उपन्यासों की विषयवस्तु प्रेमचन्द की तरह
ग्रामंचलों को करते हैं पर इसके नायक प्रेमचंद के नायक की तरह भाग्यवादी नहीं
बल्कि भाग्य के सीमाओं को तोड़ते हुए संघर्ष का रास्ता तय करता है और यहीं इसकी
दृष्टि-बिन्दु यशपाल की तरफ मुड़ जाती है | इनके कृतियों में
व्यर्थ की भावुकता, रोमानीपन,
काल्पनिकता और शब्द –क्रीडा के लिए स्थान नहीं है
बल्कि शब्द संघर्ष की चिंगारी पैदा करती है | व्यर्थ
के गर्जन-तर्जन,जोश और उत्साह के हवाई प्रदर्शन ,ललकार और चीख-पुकार इन सबसे बचते हुए वे प्रकृति,
जीवन, समाज और मानव संबन्धों के यथार्थ पर अपनी अचूक और बेधक
दृष्टि रखते हैं | 2“
नागार्जुन एक सचेत, सतर्क और सोद्देश्य उपन्यासकार हैं | सामाजिक चेतना के इस अग्रदूत के मन में अपने परिवेश के प्रति उपेक्षा,मूल्यों में अविश्वास और अनासक्ति की भावना नहीं है | वे जीवन के प्रति बड़े भावुक और जन-संचेतना के संवाहक हैं | इनका स्वर एक संघर्षशील योद्धा का स्वर है, जिनका
आत्मसंघर्ष अंत तक उस संघर्ष की ही सूचना देता है, जिसका
अंतिम लक्ष्य अपने साथ-साथ समाज की भी मुक्ति है |” नागार्जुन का आगमन साहित्य धरातल पर ऐसे समय पर
हुआ दलित और शोषित वर्ग पूर्णरूप से उपेक्षित, शोषित और
उत्पीड़ित थी । एक तरफ़ देश में स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु
संघर्ष का बिगुल बज चुका था, दुसरी ओर विदेशों में पूंजीवादी
साम्राज्य का समूल नाश हो रहा था और साम्यवादी व्यवस्था पर बुद्धिजीवियों का
विश्वास बढ़ रहा था । इन सारी परिस्थितियों का प्रभाव इनके
व्यक्तित्व पर गहरा पड़ा । अपने व्यक्तित्व के अनुरूप बाबा ने उपन्यासों में
संघर्ष की आवाज बुलंद करता है | नागार्जुन साम्यवादी
विचारधारा के प्रबल सार्थक होने के नाते उनके विचार को हम लिखित में उपन्यास में
पाते हैं | ब्रेख्त के अनुसार ‘लोकप्रिय
वह है जो व्यापक जनता के लिए बोधगम्य हो , जो जनता के
अभिव्यक्ति-रूपों को अपनाए और उन्हें समृद्ध बनाए, जो जनता
के दृष्टिकोण को स्वीकारे और सुधारे, जो जनता के सर्वाधिक
प्रगतिशील हिस्से की नेतृत्वकारी शक्ति का चित्रण करें, जो
वर्तमान शासक वर्ग के बदले राष्ट्र और समाज का नेतृत्व करने के लिए संघर्षशील जनता
तक पहुँच सके |’ उन्होंने ने अपनी लेखनी के माध्यम से जनता के मन में अपनी
जगह बनाई | साम्यवादी विचारधारा के अनुरूप वह एक ऐसे समाज का
निर्माण करना चाहते थे जहाँ न कोई बड़ा हो,न कोई छोटा, न कोई अमीर हो न कोई गरीब, न कोई भूखे प्यासे सोये न और कोई अपनी अमीरी की वजह मरें | उनका यही सपना उन्हें हमेशा बैचेन बनाए रखा | जहाँ
कहीं भी सर्वहारा पर अत्याचार होता वहीं अपनी लेखनी के माध्यम से उसका उद्धार करने
के लिए पील पड़ते हैं | उनका मानना है कि 3“समाज
उन्हीं को दबाता है, जो गरीब होते हैं | शास्त्रकारों को बलि के लिए बकरे
ही नजर आए | बाघ और भालू का बलिदान किसी को नहीं सूझा | बड़े-बड़े दाँत और खूनी पंजे पंडितों के सामने थे, इसलिए
उधर से नजर फेरकर उन्होंने बेचारे बकरे का फतवा दे डाला |”
जब भी समाज के विकास की प्रक्रिया शुरू होती है तब ही सर्वहारा वर्ग को बलि की
वेदी पर चढ़ना पड़ता है | नागार्जुन की पैनी नजर हमेशा
राजनीतिक गतिविधियों पर बनी रहती थी, उनके प्रांत में घटने
वाली घटना से बिना प्रभावित हुए कैसे रह सकते थे | जब बिहार
का किसान-आंदोलन शुरू हुआ तो उन्होंने अपनी सारी वैचारिक शक्ति इसमें खफा दिए , किसना अंदोलन का प्रभाव गाँव-जवार के सभी क्षेत्रों में फैल गया | | छोटे-छोटे किसान भी अपनी जमीन को लेकर सजग हो रहे थे | जमींदारों की मनमानी बंद हो रही थी | किसान-मजदूर
सभी संगठित होकर प्रतिरोध का मोर्चा खोल दिए थे
| कांग्रेस के द्वारा चलाए गए किसान-आंदोलन से आम
किसानों का विश्वास उठता जा रहा था | कांग्रेसियों से मन-उचाट
होने पर उन्हें ऐसे नेतृत्व की जरूरत महसूस हो रही थी जो इस वर्ग के संवेदना को
समझे, उसके दुख का साथी हो, उनके
संघर्ष को मुक्ति के द्वारा तक ले जाए | ‘रतिनाथ की चाची’ में गाँव के जमींदार अपने रैयतों के
इस रवैये से काफी परेशान हो गए थे | इस समस्या से मुक्ति
पाने के लिए गाँव के अधिकारियों से लेकर कांग्रेसियों के बड़े से बड़े नेता तक को
लक्ष्मीनारायण के दर्शन कराएं गए | आंदोलन को दबाने के लिए
साम-दाम-दंड-भेद की नीति को अपनाएं | लेकिन किसान और मजदूर
वर्ग की एकता ने जमींदारों को नाको चने चबाना पड़ रहा था | कांग्रेसी
नेता खुल कर जमींदारों का साथ दे रहे थे | नागार्जुन के इस
कथन से स्पष्ट हो जाता है कि 4“मंत्रियों ने अपनी पीठ कर ली
किसानों की ओर ,मुंह कर लिया जमींदारों की ओर | दुनिया भर में बदनामी फ़ेल गई कि बिहार की कांग्रेस पर जमींदारों का असर
है | जवाहरलाल तक ने खुल्लमखुल्ला यह बात कही |” जब राजनीतिक पार्टियां और शासन व्यवस्था साथ नहीं दिया तो शुभंकरपुर के
किसान संगठित होने लगे | संगठन की यह हवा राजा बहादुर की भी
जमींदारी में पहुंची | उनकी सूदखोरी और जमींदार शाही से सारा
इलाका तंग आ गया था | लोग इस आंदोलन के बहाने राजा बहादुर से
मुक्ति पाना चाह रहा था | गाँव के सभी छोटे-बड़े किसान
राजाबहादुर के विरुद्ध एक जुट हो गए | गाँव के ब्राह्मणों में भी इस बात को लेकर दो दल हो गए | एक दल जमींदारों की ओर था, दूसरा किसानों की ओर | जो लोग जमींदारों के ओर थे , वे खूब नाफा में रहे | आंदोलन की बात इस तरह बढ़ा-चढ़कर राजाबहादुर के कानों में डाली गई कि वो
बाधवास हो गए | बढ़िया से बढ़िया धनहर खेत सौ या पचास रुपए फी
बीघा लुटाने लगे | ‘आग लगंते झोपड़े जो आवे सो हाथा |’
किसान बित्ता भर भी जमीन छोड़ने को तैयार नहीं थे | उनमें गज़ब
का जोश था | उनके दरभंगा और पटना तक दौड़ लगा रहे थे | इस संघर्ष कि जरा-जरा सी बात भी ‘जनता’ में विस्तार पूर्वक छपती थी | इस आंदोलन से
शुभंकरपुर वातावरण गरम हो गया था | किसानों में गज़ब का जोश
था | मरने- मारने को तैयार थे |
जमींदारों के सारे दांव-पेंच किसानों कि एकजुटता के आगे ढीली पड़ गई थी | “सभा, जुलूस, दफा एक सौ
चौवालिस, गिफ़्तारी, सजा,जेल, भू-हड़ताल, रिहाई- यह
शिलाशिला किसानों को ठंडा नहीं कर सका |” गाँव के कुलीन
ब्राह्मण भी इस बहती गंगा में हाथ धोना चाहते थे | वह भी
जमींदारों को किसानों के विरुद्ध पूर्ण समर्थन कर रहे थे |
उसी गाँव का किसान-आंदोलन से सर्वाधिक लाभ इन्हीं महाशयों को पहुँचा, क्योंकि राजबहादुर ने दबंग समझकर मनखप वाले दस बीघा खेत जयदेव को लिख दी, सिर्फ छःसौ रुपए लेकर | मालूम होने पर किसान गुस्से
के मारे पागल हो गए | मगर अंदर के घूसखोर और ऊपर के पुरजोर
कुछ किसान-सेवकों ने उल्टा-सीधा समझाकर उन्हें शांत कर दिया | जिला किसान सभा के एक प्रमुख नेता रमापति झा परसौनी के रहने वाले थे,
तीन साल तक एडी चोटी का पसीना एक करके उन्होंने राजबहादुर के रैयतों को जगाया था | और अब उनके भी मुंह से लार टपकने लगी | चौदह बीघा
जमीन मिली , बराह सौ का कर्जा माफ हो गया | शुभंकरपुर ने तरुण ब्राह्मण छोटी जाती वाले किसानों का अगुआ बनकर उठे थे | दो-दो बीघा खेत देकर राजाबहादुर ने उनके भी मुँहों में दही लगा दिया | इतने पर भी किसान डटे रहे | पड़ोस के एक छोटे
जमींदार ने राजाबाहादुर के शुभंकरपुर वाले खेत लिखा लिए |
किसानों के संघर्ष को अवसरवादी नेता चौपट कर चुके थे |
मुकदमा लड़ते-लड़ते उन बेचारों का बुरा हाल था ऐसी स्थिति में पंडित कालीचरण के
नवजवान लड़के ताराचरण ने बीच-बचाव करके नए जमींदार से यह मनवा लिया कि खेत किसानों
की ही जोत में रहेंगे | फी बीघा ग्यारह मन के हिसाब से अनाज
इसके एवज में उन साल-साल मिलता रहेगा | हारती बाजी के समय का
यह मामूली नेतृत्व किसानों की दृष्टि में ताराचरण जैसे नवयुवक शोषित,दमित, उत्पीड़ित किसानों का अगुआ बना देता है | ताराचरण ही एक मात्र ऐसा युवक है जो नागार्जुन
के विचारों का वाहक बना | जो अपनी कार्यकुशलता और सूझ-बुझ से
गाँव के किसान-मजदूर को एक एकत्रित कर जन-आंदोलन की प्रेणना देता है | उपन्यासकर जानते हैं कि जन-शक्ति में ऐसी ताकत है जो बड़े-बड़े तानाशाही को
भी धूल चटा सकता है | एक तरफ देश व्यापी किसान आंदोलन की लहर
चल रही और दूसरी ओर पूरा यूरोप हिटलर के चंगुल में आ गया था | किसानों के उस जन- संघर्ष का जब
इस प्रकार उपसंहार हो रहा था | तब दो साल पूरे हो चुके थे | और यूरोप हिटलर के चंगुल में था | कांग्रेसी
मंत्रिमंडल इस्तीफा देकर विश्राम कर रहा था | विश्राम तो
क्या कर रहा था, आगामी महासंघर्ष की चर्चा में ज़ोरों से लग
गया था | इस प्रकार नागार्जुन किसान-मजदूरों को जन-आंदोलन के
लिए प्रेरित करते हैं |
‘बलचनमा’ नागार्जुन का प्रसिद्ध
उपन्यास है | इस उपन्यास के कथानक के आरंभ में ऐसी घटना का
वर्णन करते हैं कि पाठकों के मन में क्रांति की संवेदना जागृत हो जाती है | जिसका नायक बलचनमा स्वयं ही
ब्यौरे बार घटनाओं का वर्णन कर पाठकों को बांधे रखता है | कथानक
के शुरुआत में जिस वीभत्सता से बलचनमा के पिता को पीटा जाता है, घटना को पढ़कर ही भावुक पाठक के
मन रोष उत्पन्न हो सकता है तो सोचिए बलचनमा के ऊपर क्या बीत रही होगी जब वह पिता
की मृत्यु की वह वीभत्स दिन याद करता होगा | बलचनमा के बालमन
ही विद्रोह करने के लिए उतावला हो सकता था पर परिस्थितियाँ उस वक्त उसके साथ नहीं
थी | ज्यों- ज्यों बलचनमा शिशु से नवयुवक की दहलीज पर पाँव
रखता जाता है त्यों-त्यों अपने मालिक के प्रति घृणा बढ़ता जाता है | उसके शोषण,उत्पीड़न की घटना उसके मस्तिष्क की तारों को झन्ना देता है | बलचनमा अपने अनुभव से धीरे-धीरे अपने मालिकों के कुकर्मों के प्रति भी
सजग होता है, मालिक पर उसे अविश्वास है, तभी तो बलचनमा हम पाठकों को सचेत करते हुए कहता है 5“ मैं नहीं चाहता की मेरी बहन के
तन पर कुत्तों की चंगुल पड़े, मैं नहीं चाहता था कि मेरी माँ
अपनी लड़की को आमदनी का जरिया बनाए | गरीबी नरक है भैया,नरक | चावल के चार दानें छींटकर जैसे बहेलिया
चिड़ियों को फँसाता है उसी तरह ये दौलत वाले गरजमंद औरत को परपंज में फँसा मारते
हैं ! उनके पास धन भी होता है और अकल भी होती है | अपरम्पार
है उनकी लीला | बड़े खानदान का अवारा से अवारा आदमी पंडितों
और पुरोहितों भलमनसाहत का फतवा पा जाता है |” इस तरह
जमीनदारों के दुश्चरित्र को उजागर तो करता ही साथ ही जमींदार वर्ग को लोग कांग्रेस
पार्टी में घुस कर किस तरह अपने शोषण को कायम रखे हुए है, उस
पर नजर डालता है | भयंकर भूकंप के कारण पूरा गाँव-जवार में
उथल-पुथल मच जाता है | कांग्रेस पार्टी भूकंप से पीड़ित लोगों
के राहत के लिए जो फ़ंड दी जाती है उसका बंदर बाँट का पोल खोलते है “ बीस आदमियों
के नाम सवा पाँच सौ रुपए की खैरात लिखी गई लेकिन लोगों को मिले सिरिफ दो सौ
छः रुपए ! कुएं सुधारने के नाम से एक हजार रुपया मिला | उस
रकम को छोटे मालिक ने ,बल्ली बाबू ने और दास जी ने आपस
में बाँट लिया था |
एक-एक को अलग-अलग बुलाकर बल्ली बाबू और
दास जी ने रुपए बांटे | लोगों ने अकासी आमदनी समझकर दस्तखत
कर दिया , अंगूठे की छाप दे दी | जिसका
जैसा मुंह,जिसकी जैसी आवाज ,उसको उतनी
ही रकम मिली |”………225
मोसमत कुंती ऐसे नेताओं पर व्यंग्य करते हुए कहती है “ये लोग जुलुम करते
हैं बेटा देते हैं दो और कागज पर चढाते हैं
दस ! इमान-धर्म सब डूब गया है , तेल जरे तेली का औए
फटे मसालची का !”.......226 बलचनमा इस बंदर बाँट के विरुद्ध लोगों को सचेत करते
हुए आगे की रणनीति के लिए खुद को तैयार करता है | हद तो तब
हो जाती है जब रेवनी पर छोटे मालिक की बुरी नजर पड़ता है |
बलचनमा मालिक के विरुद्ध आंदोलन का ऐलान कर देता है | “बबुआ
बालचन! मर जाना लाख गुना अच्छा है मगर इज्जत का सौदा करना अच्छा नहीं |”…174 अपनी माँ की बाते गांठ बांधकर वह छोटे मालिक को सबक सीखने के लिए फूल
बाबू से सहायता मांगता है पर फूलबाबू यह साफ कहकर इंकार कर देता है कि यह तुमलोगों
का रैयत और जमींदार का आपस का झगड़ा है ,मैं इसमें कुछ नहीं कर
सकता तभी बलचनमा को जमींदारों से विश्वास उठ जाता है , “ सच
जानो भैया, उस बखत मेरे मन में यह बात बैठ गई कि जैसे अंगरेज बहादुर से सोरज
लेने के लिए बाबू-भैया लोग एक हो रहे हैं, हल्ला-गुल्ला और
झगड़ा –झंझट मचा रहे हैं उसी तरह जन-बनिहार, कुली-मजूर और
बहिया-खबास लोगों को अपने हक के लिए बाबू-भैया लोगों से लड़ना पड़ेगा |”……..186 अब बलचनमा के मन में यह बैठ बात बैठ जाती है कि “छोटे
मालिक से बिना डटकर मोर्चा लिए निस्तार नहीं | साफ-साफ बात
थी | या तो तुम अपनी बहन को उस जालिम के हवाले कर दो या फिर
मुसीबतों का पहाड़ खुशी-खुशी सिर पर उठा लो | दो ही बात थी
तीसरा रास्ता नहीं था | मैंने मन ही मन अपने ओर से पक्का कर
लिया कैद कटूँगा, फांसी चढ़ूँगा, गाँव
से उजाड़ जाऊँगा |……. 177
जब जमींदारों और कांग्रेसियों पर से उसका विश्वास उठ जाता है तो उनका रुख
सोसलिस्ट पार्टी की तरफ करता है,जो गरीब,किसान-मजदूर और शोषितों के लड़ाई करता है | इसी क्रम
में बलचनमा का लगाव फूल बाबू से हटकर राधा बाबू की तरफ मूड़ जाता है जो पहले
कांग्रेसी थे पर उसके दुर्नीतियों से अवगत होकर सोसलिस्ट हो जाते हैं | बाबा नागार्जुन को विश्वास है गरीब-किसान-मजदूरों के अधिकार के लिए यदि
कोई पार्टी लड़ सकती है तो एक मात्र सोसलिस्ट पार्टी ही है |
इसीलिए बाबा नागार्जुन अपने विचारों के अनुरूप बलचनमा को सोसलिस्ट का कार्यकर्ता
बनाकर आंदोलन के रणभूमि में उतारते हैं | “उन दिनों
सोसलिस्टों में बड़ी गर्मी होती थी भैया! वे जो कुछ भी कहते ,
उसे करने की भी कोशिश उनकी ओर से होती थी | मजूरों की हड़ताल
हो, चाहे किसानों का आंदोलन – सोसलिस्ट भाई उसमें आगे बढ़कर
हिस्सा लेते थे |”……231 बलचनमा सोसलिस्ट के विचारों प्रभावित
होकर महात्मा गाँधी के विचारों का भी विरोध करता है “गाँधी महतमा से किस बात में
सोसलिस्टों से मेल नहीं खाता है ? अंगरेजी राज न कांगरेस
चाहती है, न सोसलिस्ट ही चाहते हैं |
लेकिन गाँधी महतमा कल-कारख़ाना के खिलाफ हैं | वह इसके भी
खिलाफ हैं कि सेठों-जमींदारों ,राजा-महाराजों से जमीन जायदाद
और धन-सम्पदा छीनकर लोगों में बाँट दिया जाए | एक बूंद भी
लोहू नहीं बहाना चाहिए | मर खाना ठीक है , मारना ठीक नहीं है |”…..226 पर बलचनमा इसके विपरीत
धारा में बहकर हक के लिए मरने- मारने के लिए उतावला है |
महपुरा में हुए किसान-विद्रोह से इतना प्रभावित है कि वहाँ की पल-पल की खबर पर नजर
रखता है | “महापुरा के किसानों कि लड़ाई का ही यह असर था | मालिकों और बड़े किसानों को छोड़कर बाकी सबकी दिलचस्पी थी | पड़ोसी इलाके के उस आंदोलन की ओर |”....244 वह यह भी चाहता है कि हमारे गाँव में भी ऐसे
किसान-संगठन हो जो जमींदारों के मनमाने पर अंकुश लगा सके |
“महपुरा के किसानों की लड़ाई से हमारी आँख खुल गई थी हमने यह तय कर लिया कि आगे
बित्ता भर भी जमीन मालिकों को हड़पने नहीं देंगे |”….245 इसके लिए वह सोसोलिस्ट का मेम्बर बन जाता है और
गाँव के किसानों को भी मेम्बर बनाता है | मसोमत कुंती सहर्ष
मेम्बर बनकर पार्टी में अपना योगदान देते हुए कहती हैं “ बालो, देवता के प्रसाद के लिए यह एक चुटकी पिसान गरीबी का भी!”........... बाबा नागार्जुन जमींदारों के शोषण के विरुद्ध
साधारण किसानों की एकजुटता के महत्व को बताते हुए कहते हैं “किसान भाइयों, मांगने से कुछ नहीं मिलेगा | अपनी ताकत से ही अपना
हक पा सकते हैं | आपकी ताकत क्या है ?
एका है आपकी ताकत, संगठन | घर में
रोते-रोते ,अकेले हाय-हाय करते –करते हजारों साल गुजर गए | सरकार को आपको रत्ती भर भर प्रवाह नहीं है | वह अपक
लोगों से नहीं , चोर-डाकुओं से घबराती है | उन्हें पक्के मकानों में (जेलों )
हिफाजत से रखती है | खाने-पीने का ,पहनने-ओढ़ने का,दवा-दारू का उनके लिए सारा इंतजाम
सरकार करती हैं | मगर गेहूँ, बासमती
पैदा करके गैरों को लुटाने वाले आप खुद भूखों मरते हैं,
सरकार को आपकी जरा भी फिक्र नहीं है ! वह मानो खुद इशारा करती है – किसानों,चोरी करो और डाके डालो तभी तुमहार गुजर होगा……. जमींदार
बड़ा प्रपंची, बड़ा जालिम होता है |
अउवल(अव्वल) तो पहले तुम्हारे अंदर आपस ही में पहले फुट डालने की कोशिश करता है , नहीं, तुम सभी एक और मजबूत होकर अपनी ज़मीनों पर डटे
ही रह गए तो वह पैसे के बल से तंग करेगा | अफसरों से मिलकर
वह तुमलोगों को जेल भेजने की कोशिश करेगा | सम्मन, नोटिस, वारेंट, सजा – सब हो सकता है | मगर खबरदार ,अपने खेतों से न हटना | भुलावे में न पड़ना और कचहरी
जाने की गलती मत करना | पुलिस और हकीमों से साफ कह देना कि
इन्हीं खेतों को जेलों बना दीजिए , हम पड़े रहेंगे , भागेगे नहीं | उस जेल में ले चलना है तो सबको ले
चलिए ...... बाल-बच्चे,जवान-बूढ़े,
मर्द-औरत, गाय-बैल,भेद-बकरी,कुत्ता-बिल्ली,चूल्हा-चक्की....हमारी सभी चीजें साथ
जाएंगी तभी हम जेल जा सकते हैं | नहीं तो टस से मस नहीं
होंगे , जो करना हो ,यहीं कीजिए ! और
अगर पुलिस वाले खामखां पकड़ना ही चाहे तो
बूढ़े- बच्चे, मर्द-औरत , एक दुसरे को
अच्छी तरह पकड़ के पड़ जाना होगा | सैकड़ों आदमियों को ले जाने
के लिए हजारों सिपाही ,पच्चीसों लारियाँ चाहिए ....फिर देखना
कौन तुम लोगों को कैसे कहा ले जाता है ! अगर तुमने मेरी ये बातें मान ली और डटे
रहने का निश्चय कर लिया तो फिर तुम्हारे खेतों पर से तुम्हें हटानेवाली कोई ताकत
इस दुनिया में नहीं है |
जमींदार, सरकार, पुलिस, गुंडे...सभी थक के बैठ जाएंगे !”
किसान-मजदूर एक हो रहे रथे साम्यवादी विचारधार का प्रचार तेजी से हो रहा था
और उधर “सन 37 (1937) के शुरू होते न होते कांग्रेसी जमींदारों भाई-बांध, सास-ससुर,मुछों पर ताव देने लग गए थे ....कांग्रेसी
राज जमींदारों को ही फायदा करेगा’| स्वामी जी कि यह बात
हमारे रग-रग में समा गई थी कि कांग्रेस अंततह जमींदारों की पार्टी है | जब वह संगठित होकर इसका विरोध करना शुरू किया
तो एक एक दो मोर्चे पर उन्हें लड़ना प्दरहा था |”हम पुलिस को
भी समझ रहे थे और जमींदार के लठैतों को भी | जमींदार की सह
पाकर पुलिस हमें तरह-तरह के मुकदमों में फंसाना चाहते थे |”
पर इसके बाद भी आंदोलन की आग ठंडी नहीं पड़ती है | “कमानेवाला
खाएगा, इसके चलते जो कुछ हो ...... धरती किसकी ? नागार्जुन किसानों को ऊर्जा प्रदान करने के लिए बलचनमा से कहलवाता है “
जोते-बोए उसकी किसान की आजादी आसमान से उतर कर नहीं आएंगी ,
वह प्रगट होगी नीचे जूती धरती के भूर-भूरे ढेलों को फोड़कर |”.......…..250 बलचनमा कांग्रेस और जमींदारों के नीतियों को अच्छी तरह समझ गया था | वह जानता है अपने हक की लड़ाई उसे
खुद ही लड़ना है | एक मात्र सोसटिस्ट पार्टी है जो उसके
अधिकारों के लिए लड़ सकता है ,उसके लड़ाई में साथ दे सकता है | इसले लिए राधबाबू और डॉ. रहमान से मिलकर गाँव में ही सोसलिस्ट कार्यकर्ता
बनाकर गाँव के किसान को एक कर जमींदारों को विरुद्ध हक की लड़ाई का आगाज करता है |
‘नई पौध’ में
में जन –आंदोलन जैसी कोई घटना न होते हुए नही सामाजिक आंदोलन व परिवर्तन की
रूपरेखा नागार्जुन ने अवश्य तैयार की है | यहाँ भी गाँव के
नवयुवक के ‘बमपाटी’जैसे संगठन है जिसके
माध्यम से गाँव में हो रहे शोषण, अत्याचार का विरोध करता है
और उसके हक केर लिए संघर्ष भी करता है हलाकी जिस जन-आंदोलन की रूप-रेखा हम बलचनमा, बाबा बटेसरनाथ, वरुण के बेटे आदि उपन्यासों में
देखते है वैसा स्वरूप हम इस उपन्यास में नहीं पाते | फिर भी
बाबा ने सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्ष का रास्ता तय करते हुए इन नवयुवकों को
दिखया गया है | दिगंबर मलिक, माहे आदि
जैसे नवयुवक इस संगठन का कमान संभालते हुए अधिकार और शोषण का विरोध करता है | उसके गाँव का मुखिया चीनी और किरासन तेल कंट्रोल रेट से ज्यादा दाम लेने
का विरोध करना, वस्तुओं का आसमान वितरण, पुराने पीढ़ियों के विचारों का उन्मूलन, नए विचारों
का विकास, अनमेल विवाह, अंतरजातीय
विवाह ,शिक्षा पर बल ,युवकों की एकता,समाज में स्त्री की सहभागिता जैसे विषयों पर अपनी पर अपनी दृष्टि बनाए रखी
है |
बाबा बटेसरनाथ की कथानक की बुनावट एक बरगद के पेड़ को केंद्र में रखकर की गई
है | यह बरगद का पेड़ साधारण पेड़ न होकर पूरे गाँव वालों का पूर्वज का प्रतीक
है | जो अपनी छाया में न केवल गाँव वालों को बल्कि राहगीरों
से लेकर पशु-पक्षी तक को जो उसकी शरण में आता है, अपनी ठंडी
छाँव से तृप्त करता है | जैकिसुन आदि ऐसे ही नव-युवक है जो
बूढ़े बाबा बटेसरनाथ और गांवोंवालों को
जमींदारों की बुरी नजर से बचाकर उसका उत्थान करना चाहता है |
नागार्जुन देख रहे हैं कि सत्ता पाने के बाद सत्ताधारी वर्ग आम आदमी के सुख-दुख को
दरकिनार कर केवल अपने ऐश्वर्य कि वृद्धि में लगा हुआ है |
नागार्जुन की दृष्टि में इन सभी समस्याओं का निदान साम्यवादी दर्शन में ही है | इसीलिए रूपउली ग्राम के शिक्षित युवा यह अनुभव करते हैं कि समाज व
राष्ट्र का कल्याण किसी भी राजनीतिक पार्टी का बस का नहीं और पूँजीपतियों और
सत्ताधारियों से मोर्चा लेने के लिए संगठित रूप से तैयार रहना चाहिए |…….51 नागार्जुन का गद्य साहित्य आशुतोष | कांग्रेसी के
शासन काल में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन शुरू हो गया था |
जमींदार वर्ग ‘भागते भूत की लंगोटी सही’ को आधार मानकर अपने अधीन के सार्वजनिक भूमि को गाँव के आर्थिक रूप से
सम्पन्न किसान को औने-पौने में बेचकर अपना लाभ निकालना चाह रहा था | पर गाँव के नवयुवक जैकिसुन और जीवनाथ उसके साथी ने उनके मनसूबे पर पानी
फेर देता है | ‘जमींदारी-उन्मूलन शुरू
किया सरकार ने | जमींदार तो पहले से ही चौकस थे | अब उन्होंने सार्वजनिक उपयोग की
भूमियों को चुपके-चुपके बेचना आरंभ कर
दिया | लालची किसान दो-चार दस-पाँच किस गाँव में नहीं होते !
टूनाइ पाठक और जैनारायन झा ने राजा बहादुर से बरगद वाली जमीन और उधर पुरानी पोखर
बंदोबस्त में ले ली | गांववालों को मालूम हुआ तो वे क्रोध और
घृणा से सुलग उठे |’…..348
जैकिसुन और जीवनाथ उसके साथी टूनाइ पाठक और जैनारायन के विरुद्ध लामबंध
होते हैं | वह किसी भी हालत में गाँव की सार्वजनिक भूमि को
लालची किसानों के हाथों से बचाना चाहता है | बरगद वाली जमीन
पर समूचे गाँव की नजर लगी हुई है | पुरानी पोखर भी लोगों की
चर्चा का विषय थी | नब्बे प्रतिशत आदमी ऐसे थे जिनका इन
झगड़ों से संबंध था | टूनाइ और जैनारायन का कहना था कि वे
बेकार पड़ी हुई जमीन को आबाद करना चाहते हैं , इसमें भला
किसका क्या बिगड़ता है ! जमींदार तो अपनी जमीन तो छोड़ेगा नहीं ; वे नहीं लेते कोई और ले लेता ; रूपवली ‘ना’ करते तो पड़ोस के किसी गाँव का लिखवा लेता | क्या बुरा है, गाँववालों की जमीन गाँव वालों के पास
रही जीवनाथ चाहें, वही रख लें ; करें
वही इस जमीन को आबाद ... न वह पोखर ही किसी काम की रही है और न ही वह बरगद का पेड़
किसी काम का रहा ! यह नाहक टंटा खड़ा करते हैं अब जीबू | कोई
कुछ नहीं बोलता है फिर वही बीच में क्यों टांग अड़ाते हैं ?
क्या मंशा है बाबू जीवनाथ की, कुछ मालूम भी तो हो |……419 जैकिसुन और जीवनाथ टूनाइ पाठक के इस कथन के आशय को भली-भांति समझते हैं | ‘गाँव के नौजवान इन भली-भली बातों का मतलब खूब
समझते थे | ‘सत्तर चूहे खाकर बिल्ली
चली हज को’ सो उनसे छिपा नहीं था |’
....419 जैकिसुन,जीवनाथ के साथ-साथ इनके पाँच साथियों को
रास्ते से हटाने के लिए टूनाइ पाठक और जैनारायन दोनों षडयंत्र कर उसे हत्या के आरोप में फंसा देते
हैं | तत्कालीन समय की ऐसी घटना का उदाहरण प्रत्येक गाँव में
देख सकते हैं जहाँ पर किसी को अपने रास्ते से हटाने में झूठे मुकदमे में फाँसकर
जेल भिजवाता है | जीवनाथ और जैकिसुन आदि ने अच्छी तरह समझ
लिया कि सिर्फ अदालत के भरोसे इन दुष्टों से छुटकारा नहीं मिलेगा गाँव को | जन-बल को अच्छी तरह संगठित कर लेना चाहिए | अपनी
रुपउली के इस जन-आंदोलन को जन-संघर्ष की जिला और प्रदेश-व्यापी धारा से मिला देना
होगा |……..432 तभी
ग्रामवासियों को जमींदारों,सेठ-साहूकारों के चमचे से छुटकारा
मिल सकता है | बाबा ने बाबा बटेसरनाथ ने “ग्रामीणों के
श्रद्धा का ब्यौरा, ग्रामवासियों के शोषण का वर्णन , जमींदार और उसके गुर्गे की ज़्यादतियाँ ,अकाल प्रकोप, असहयोग आंदोलन,भूकंप और बाढ़ का ब्यौरे बार वर्णन ,देवी-देयताओं के प्रति जनता का अंध-विश्वास, पशुबलि
के रोमांचकारी दृश्य ...बरगद के नीचे जुटाने और कतिपय निर्णय लेने वालों पंचायतों
आदि के विवरण से पूरा उपन्यास अटा पड़ा है | बाबा बटेसरनाथ
जैकिशुन के माध्यम से गाँव की रजीनीतिक
जागरूकता का भी वर्णन करते हैं | गुलामी के दिनों में गाँधी
जी के असहयोग आंदोलन, नमक आंदोलन भारत छोड़ो आंदोलन आदि सभी
में आदर्श गाँव रूपउली अपनी भागीदारी प्रस्तुत करता रहा है |
यहाँ के क्रांतिकारी युवकों ने हिंसात्मक आंदोलन में भी भाग लेकर आजादी की लड़ाई
में अपना योगदान दिया | किन्तु बाबा बटेसरनाथ आजाद भारत की स्थिति से असंतुष्ट
हैं | वह अंग्रेज और कांग्रेस दोनों की शोषण नीतियों से
जैकिसुन को अवगत कराता है |
समय की दृष्टि से ‘बाबा
बटेसरनाथ’ ही नागार्जुन का एक मात्र ऐसा उपन्यास है, जो एक लंबे काल-खंड को समेटता है और सामाजिक परिवर्तन की लंबी प्रक्रिया
को ( सामंतवाद से अङ्ग्रेज़ी उपनिवेशवाद तक) कथाबध्द करने का
प्रयास करता है | बाबा जैकिसुन को भूत की अंग्रेजों और
जमींदारों के शोषण की कहानी को बता कर उसे भावी क्रांति के लिए तैयार करता है | बाबा का मानना है कि जैसे पहले के अंग्रेज़ बहादुर और जमींदार वर्ग जनता
को लुटती है वैसे ही व्यवस्था आज भी बनी हुई है
| “अंग्रेजों से लेकर आजाद सरकार तक जनता लुटती रही
है – कभी मझले कुमार की शादी में सोलहा बेगारी भरी –सा तख्तपोश धोए जा रहे थे, जिस पर पतुरिया का नाच हो रहा था ,तो कभी सही बात
कहने के लिए शत्रुमर्दनराय को चीटों से
कटाया जाता है |
जमींदारों के तथाकथित खात्मे से पूर्व यह सुविधा भोगी वर्ग अधिक से अधिक बटोर लेना
चाहता है और चोर से मिली पुलिस की तरह कांग्रेस सरकार उन्हें भागने-बटोरने का पूरा मौका देना चाहती है | वे घोड़े
की कीमत पर हाथी और दरी की कीमत पर
शामियाना बेंच रहे हैं | बाबा जैकिसुन से कहते हैं –“ और
तेरी यह आजाद सरकार इन सामंती श्रीमंतों को ज्यादा – से –ज्यादा हरजाना देने की
तिकड़में भिड़ा रही है | व्यक्तिगत संपती के वाजिब हकों का
दायरा बेहद बढ़ाकर जमींदारी प्रथा का यह जो नकली श्राध्द जो कांग्रेसी कर रहे हैं , क्या नतीजा निकलेगा इसका ?”-----बाबा बटेरसरनाथ
अंग्रेजों के शोषण के नीति का विरोध करते
हुए उसके कुकृत्यों को जैकिसुन के सामने रखता है “एक बीघा में बीस कट्टा जमीन होती
है न ! तो प्रति बीघा तीन कट्टा जमीन में नील की खेती करने के लिए किसान को मजबूर
किए जाए थे | यह दबाव जमींदारों और सरकारी अफसरों द्वारा
डलवाया जाता था | जो नहीं मानता, उसे
कई तरह से परेशान करते थे | तुम्हारे दादा को जौन साहब के
साले ने इसलिए पीट दिया एक बार कि वह सलाम करने से चूक गया |………..394 छोटी-छोटी बातों पर किसानों को
तंग करना, उसे सताना, दंड देना आदि
उसके लिए छोटी बात थी | किसानों का जीवन नरक बना दिया था नीलहे साहबों ने जबरन किसानों से नील की
खेती करवाना, नील का उचित मूल्य न देना | किसान जाए तो भी तो कहाँ ,कहीं भी इंसाफ की देवी
नजर नहीं आ रही थी,किसान दिशाहारा था |
उनके अधिकारों की रक्षा करने वाला कोई नहीं था | बाबा
बटेसरनाथ व्यंग्य से विक्टोरिया को ‘राज राजेश्वरी महारानी
विक्टोरिया’ कहते हैं | वैसे उसकी सही
संज्ञा ‘बनियों की रानी’ भी उन्हें
मालूम है| उनकी जनवत्सलता का स्वरूप भी देखने लायक है “हुआ
यही कि डंडीमारों ने बटखरे का वजन अपने हक में बढ़ा लिया |
यानि हमारे इलाकों में सरकार ने रेल चलायी तो उसके अंदर जनता के हित की कोई भावना
ही न थी | भावना भी एकमात्र यही कि उसके अपने लाडले सौदागर
कच्चा माल आसानी से ढो ले जा सके | ‘शुभ-लाभ’ कि अपनी सड़कों को चौगुना
लंबा-चौड़ा कर लें | जब नील की खेती करने वाले किसान अपने
शोषण का विरोध करना शुरू किया तब वे ‘साहब अपनी जमीन बेचकर कलकत्ता चला गया | नील की खेती
पीछे फायदे की नहीं रह गई और पास-पड़ोस के दबे-पिसे किसानों का धीरज छूटने ही वाला
था कि फिरंगियों ने जान लेकर भागा |’…..395 अंग्रेज़ के शोषण नीति तो दूसरी तरफ प्राकृतिक आपदाएँ भी उनके साथ रहती थी
| सूखा, बाढ़,
अतिवृष्टि, अनावृष्टि ,पाला जैसी
आपदाएँ किसानों की कमर तोड़ती रही है | बाबा बटेसरनाथ बाढ़ के
एक घटना का वर्णन जैकिसुन को सुनता है कि बाढ़ से पीड़ित किसान पेट कि अग्नि को शांत
करने के लिए कई नुस्खे अपनाते थे इन्हींनुस्खोंमें से एक का
जिक्र करते हुए बाबा कहते हैं “एक ईंट का वजन उन दिनों कम-से-कम तीन सेर होता था | जो इनते हल्की आँच में पकी होतीं ,लोग उन्हें ही
उठाते | घर में औरतें ईंट का चूरन बनाती पहले, पीछे उस चूरन का महीन पिसान तैयार
कर लेतीं | आम ,जामुन, अमरूद, इमली वगैरह की पत्तियाँ उबालकर पीस ली जाती | पाँच जाने अगर खाने वाला हुआ करते तो ईंट का एक सेर पिसान दो सेर उबली
पत्तियों में मिलाया जाता ; कहीं यह पिसान पत्तियों में
एक-चौथाई भर डाला जाता | आम की गुठलियाँ का पिसान भी इसी तरह
बरता जाता |……377 साथ जमींदारों की दरिंदगी को भी उजागर करता
है | एक तरफ किसान बाढ़ से पीड़ित रहती है तो दूसरी तरफ
जमींदार वर्ग अपनी शान-शौकत को दिखने के लिए इसका ही खून चूसता है ‘छोटी औकात के और नीची
जात के लोगों को तो खैर वह कीड़े-मकोड़े समझता ही था ,अच्छी –अच्छी
हैसियत के भले-खासे व्यक्तियों से वक्त-बेवक्त नाक रगड़वाता था जमींदार |……371उसके लिए किसान आमदनी का मूल जरिया था | बाबा इन
घटनाओं से काफी उद्विग्न होकर कहते हैं ‘मैं बूढ़ा जरूर हो आया हूँ लेकिन बीते युगों की सड़ांध का समर्थन किसी भी
कीमत पर नहीं कर सकूँगा |’......374 वह जैकिसुन जैसे
नवजवानों को बीते युगों कि सड़ांध से बाहर निकालने के लिए आंदोलन का रास्ता दिखाता
है | अंग्रेज़ के शासन से मुक्ति के लिए गांधी स्वतन्त्रता
संग्राम चलाते हैं | कांग्रेस एक संगठित राष्ट्रवादी पार्टी
के रूप में उभरती है | किन्तु कांग्रेस में पुनः जमींदार
वर्ग के लोगों का आधिपत्य हो जाता है | वे अपनी शक्ति को
सम्पन्न बनाए रखने के लिए कांग्रेस पार्टी का सहारा लेते हैं | किसान,मजदूर और सर्वहारा वर्ग के लोगों का जीवन त्यों का त्यों बना रहता है ,इसके पीछे का मूल कारण सर्वहारा के प्रतिनिधि का अभाव का होना है | नागार्जुन इस तथ्य को भली-भांति समझ गए थे ,वे
जानते थे कि सर्वहारा वर्ग से होकर यदि कोई लड़ सकता है तो एक मात्र सर्वहारा वर्ग
का ही कोई व्यक्ति हो सकता है इसलिए बाबा बटेसरनाथ को काल्पनिक पात्र बनाकर स्वयं
रुपउली का इतिहास प्रस्तुत कर जैकिसुन और जीवनाथ जैसे नवयुवकों को राजनीति,सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक
समस्याओं से अवगत कराकर आंदोलन के लिए प्रेरित करते हैं |
कांग्रेस से सहारे मिली आजादी को झूठी आजादी कहकर उसके महत्व को अस्वीकार करते हुए
कहते हैं “आजादी! फ़िः! आजादी मिली है
हमारे उग्रमोहन बाबू को ,कुलानन्ददास को, ... कांग्रेस की टिकट पर जो भी चुने गए हैं उन्हें मिली है आजादी | मिनिस्टरों को और भी ऊंचे दर्जे की आजादी मिली है |
सेक्रेटेरियट के बड़े साहबों को भी आजादी का फायदा पहुँचा है |”.....423 इस आजादी पाने के लिए सैकड़ों परिवारों को बलिदान के वेदी पर
चढ़ना पड़ा | कई परिवारों को घर से बेघर होना पड़ा | पर आजादी का रबड़ी केवल कांग्रेस के हिस्से में पड़ी है | कांग्रेस में जमींदार वर्ग का बोलबाला हो गया ,उसकी
सारी नीतियाँ जमींदार और पूँजीपतियों का पोषक ही बना रही,
सर्वहारा के हक और अधिकार को दरकिनार कर उसके शोषण को बरकरार रखा | बाबा बटेसरनाथ में जिस तरह गाँव के बड़े किसान जमींदार वर्ग से मिलकर
सार्वजनिक भूमि को हथियाने के चक्कर में है वह इसकी खुली लूट है “पाठक और जैनारायन
की इसी तरह चली तो सारा गाँव मसान बन जाएगा | जमींदार बाबू
कृष्णदत्त और उसका दीवान मल्लिक अब भी अपने जालिमाना हरकत से बाज नहीं आया तो आदमी
आदमी को को खाने लगेंगे |थानेदार और जिला के अधिकारी यों ही
छूटकर चरते रहे तो भारतमाता की इज्जत-आबरू लुट जाएगी...... किस उमंग से दयानाथ
नागपुर गया था झण्डा सत्याग्रह में शामिल होने ! किस उत्साह से नमक –कानून तोड़ा था
! उछलता हुआ कैसा दिल लेकर वह दोनों बार जेल के अंदर पहुंचा
था! हजारों और लाखों आदमी ने उसी तरह जेल गए | सैकड़ों फांसी
पर झूले | हजारों के परिवार टूटे ......तब जाकर यह आजादी
हासिल हुई है |…..423 ...
बाबा भली-भांति समझ गए है कि “ राजनीति गरीब और मूरखों की नहीं हुआ करती, वह तो बस खाते-पीते सयानों की चौपड़ है |” |……..423 इस राजनीति का पूरा लाभ लेते हुए पाठक और जैनारायन गाँव की जमीन को अपने
हक में कर लेना चाहता था | बाबा इतनी आसानी से गाँव की जमीन
को छूटना देना नहीं चाहता है जैकिसुन और जीवनाथ एड़ी-चोटी लगा देता है जमीन की
मुक्ति के लिए | यह आंदोलन न केवल जमीन की मुक्ति है बल्कि
इसके माध्यम से गाँव और देश की भी मुक्ति है | ‘सार्वजनिक उपयोग की भूमि पर व्यक्तिगत अधिकार विधाता का भी नहीं हो सकता |’…421 तो पाठक और जीवनाथ इस भूमि को कैसे ले सकता है | एक
तरफ गांधी के विचारों से नवयुवक समाज राष्ट्रहित में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने
के लिए तैयार थे तो दूसरी तरफ कांग्रेस के जमींदार वर्ग के लोग सर्वहार को लूटने
के लिए तैयार हो गए थे | सत्ता का हस्तांतरण गोरे लोगों के
हाथों से काले लोगों के हाथों में आ गया,पर शोषण की चक्की
अबाध गति से उसी चल से चलती रही | कभी-कभी
बाबा गांधी को संदेह की दृष्टि से देखते हैं तो कभी स्वतंत्रता की स्वर को जन-जन
तक पहुँचाने में इनकी भूरी प्रशंसा करते हैं “चरखा,व्रत-उपवास,आत्मा-शुद्धि,ग्रामोद्योग ...गीता,कुरान और बाइबल ...सत्याग्रह,असहयोग , बहिष्कार... जेल जाना ,बाहर आना ,आश्रम जीवन,सत्या और अहिंसा के नए-नए प्रयोग , सेठों और जमींदारों का हृदय परिवर्तन....साम्राज्यशाही, छोटे-बड़े लाटों कि नेकनीयती के प्रति आस्था, किसान
और मजदूर वर्ग-संगठन की ओर संदेह की दृष्टि .....इस प्रकार के बहुतेरे चमत्कारों
का केंद्र था महात्माजी का जीवन | उनकी सबसे बड़ी खूबी क्या
थी, पता है ?........ आजादी के लिए जो
समझदारी पहले थोड़े-से पढे-लिखे लोगों तक सीमित थी उसे गाँधी जी आम पब्लिक तक ले आए
| यही उनकी सबसे बड़ी खूबी मैं मानता हूँ |…. 405 नागार्जुन का यह आंचलिक
उपन्यास बिहार के दरभंगा के ग्रामीण अंचल की समस्या को परत दर परत पाठक के सामने
रखता है | यदि दशा लगभग सभी गांवों की है, किन्तु लेखक ग्रामीण समस्याओं से भयभीत होकर निराश नहीं होता ,वह जन-चेतना एवं समूहिक कल्याण की भावना से कार्यरत स्वयंसेवी संघों की
भूमिका को महत्व देता है | बाबा बटेसरनाथ सौ वर्षों तक अपने
परिवेश में रहने वालों की जीवन में नवीन संचार करते हैं |
परोपकार, बहुजन हिताय ,बहुजन सुखाय ,ईमानदारी, त्याग, सत्यनिष्ठा, कर्मठता एवं संघे शक्ति कलयुगे’ का पाठ बाबा
बटेसरनाथ ने बताया | नागार्जुन की इसी रचना का बूढ़ा-बरगद सुख
कर समाप्त हो जाता है | और फिर उस स्थान पर बरगद का नया
बिरवा लगा दिया जाता है | शिल्पाकर ने इस उपन्यास के अंत में
पुनः यह दर्शाया है कि अच्छे मूल्यों कि स्थापना में समाज सर्वदा अपना योगदान देता
रहेगा | स्वाधीनता, शांति , प्रगति इस तीन शब्द से अंत शायद यह इंगित कर रहा है स्वाधीन भारत शांति
के पाठ पर चलता हुआ प्रगति करता रहेगा |…..52 नागार्जुन का
गद्य साहित्य आशुतोष उसमें एक प्रतीक के बजाय जन-आंदोलन के कथावाहक का रूप देना
अच्छी ख़ासी खींचतान है जिसका औचित्य नहीं खोजा जा सकता |
तथापि बाबा बटेसरनाथ आंचलिक परिवेश को एक हद तक उतारने में समर्थ है , किन्तु इसे लिखते हुए नागार्जुन का ध्यान जिस वैचारिक क्रांति की ओर है , उसमें शिल्प की बारीकियों को पनपने नहीं दिया है |
.....53 नागार्जुन का गद्य साहित्य आशुतोष | नागार्जुन की
वैचारिक भूमि ही साम्यवाद है अपनी विचारों को वहन करने के लिए जैकिसुन और
जीवनाथ को वैचारिक स्तरपर जन-आंदोलन के
लिए तैयार करते हैं |
नागार्जुन ने ‘वरुण
के बेटे’ उपन्यास में मछुआरों के जीवन संघर्ष को दिखाने का
प्रयास किया गया है | मलाही-गोंढियारी गाँव के मछुआरे अपने
जीविका के लिए विशाल जलाशय गढ़पोखर से मछली का व्यवसाय कर जीविका चलाते हैं | इस गढ़पोखर से मछुआरे के कई पुश्त मछलियाँ पकड़ते आए हैं | “मलाही-गोंढियारी की संयुक्त अबादियों में आम किसान और खेत मजदूर कम नहीं
थे किन्तु उनमें भी ज्यादा तादाद थी मछुओं-मांझियों की ही |
इनकी भी चार-पाँच उपजातियाँ यहाँ थीं : सहनी, माँझी, खुनौत, तीअर, जलुआ | धनहा चौर और गढ़पोखर जैसे विशाल जलाशय ही इनके पूर्वजों को यहाँ खींच लाए
थे |”……501 पर कांग्रेसी शासन में जमींदारी-उन्मूलन के कारण
जमींदार वर्ग किसी तरह सरकारी जमीन पर भी अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए कई
हथकंडे अपनाते हैं |“ जमींदारी-उन्मूलन के मुताबिक रैयतों से
जमीन का लगान या मालगुजारी वसूल-तहसील करने के हकों से मौकूफ हो चुके थे | व्यक्तिगत जोत की जमीन, बाग-बगीचे, कुंआ-चभच्चा और पोखर ,देवी-देवता के नाम पर चढ़ी हुई
जायदाद ,चरागाह, परती-परांत ,नदियों के पाट और तटवर्ती भूमि जैसी कुछ-एक अचल संपतियों के मामले में
जमींदार-उन्मूलन कानून ने भू-स्वामियों को खुली छूट दे दी |
नतीजा यह हुआ कि पोखरों और चारगाहों तक को वे चुपके-चुपके बेचने लगे |” .........462 देपुरा का जमींदार गढ़पोखर को सतघरा के जमींदार को दे देता है | नई बंदोबस्ती देकर ज्यादा से ज्यादा लाभ पाने के लिए सतघरा के जमींदार
गढ़पोखर को दूसरे मछुआरों को सौंप देन
चाहता है | “नया खरीददार सतघरा के जमींदार थे | वे लोग गरोखर को नए सिरे से बंदोबस्ती देकर ज्यादा से ज्यादा रकम बटोरना
चाहते थे | उनमें से एक शासक दल का पूर्व और प्रतिष्ठित नेता
भी था |” ...464 गढ़पोखर की मछलियाँ उनके लिए जीवन का प्रमुख
साधन थीं | नए मालिक डरा-धमाकाकर ,
मुंह के कौर छीनकर , छाती पर संगीन की नोक का दबाव डालकर ,फुसला बहलाकर चाहे कैसे भी हो, मछुओं से अपना
प्रभुत्व मनवा लेने पर आमादा थे |……… 520 इस उपन्यास का
नायक मोहन माँझी इस नए सिरे से हो रही
बंदोबस्ती के विरुद्ध मलाही-गोंढियारी गाँव के मछुआरों को लेकर लामबंद होता है | बूढ़ा गोनड़ इस व्यवस्था का विरोध करते हुए कहता है “यह पानी सदा से हमारा
रहा है, किसी भी हालत में हम इसे छोड़ नहीं सकते | पानी और माटी कभी न बिके है, और न कभी बिकेंगे | गरोखर का पानी मामूली पानी नहीं, वह तो हमारे शरीर
का लहू है | जिनगी का निचोड़ है |”…..464 पुश्त दर पुश्त इस गरोखर से
मछलियाँ निकालने का काम इस गाँव के लोग ही करते आ रहे हैं |
यह कोई मामूली झील नहीं, यह तो इनके जीवन का आधार है | मोहन माँझी को विश्वास है कि जब इस गढ़पोखर का उद्धार हो जाएगा तो मछुआरे
समाज की जीवन शैली में परिवर्तन आ जाएगा कोई भूखा-नागा नहीं रहेगा वह इस गरोखर को
लेकर जिंदगी की खुशियों का सपना देखता है “गढ़पोखर का जीर्णोद्धार होगा आगे चलकर और
तब मलाही-गोंढियारी के ये ग्रामाञ्चल मछली-पालन-व्यवसाय का आधुनिकतम केंद्र हो
जाएँगे | वैज्ञानिक तरीके से यहाँ मछलियाँ पाली जाएँगी | पुस से लेकर जेठ तक प्रति वर्ष अच्छी से अच्छी मछलियाँ अधिक से अधिक
परिणाम में हम निकाल ले सकेंगे | एक-एक सीजन में पचास-पचास
हजार रुपयों तक की आय होगी | मलाही-गोंढियारी का एक-एक
परिवार गरोखर के बदौलत सुखी-सम्पन्न हो जाएगा | विशाल जलाशय
की इन कछारों में हम किस्म-किस्म के कमलों और कुमुदिनियों की खेती करेंगे | पक्की-ऊंची भिंडो पर इकतल्ला सैनिटोरियम बनेगा, फिर
दूर-पास के विश्रामर्थी आ-आकार यहाँ छुट्टियाँ मनाया करेंगे |”……..463 जब उसके सपने पर कुठराघात होता है तो वह गाँव के सभी लोगों को एकत्रित कर
सामूहिक संघर्ष के लिए तैयार करते हुए उसकी एकता की शक्ति से पहचान कराता है साथ
ही किसान सभा जैसी जुझारू और सुदृढ़ संगठन का महत्व भी बताते हैं | वह छोटे-छोटे महासभा को विरोध कर समग्र रूप से आंदोलन करने की प्रेरणा
देते हुए कहते है “किसान सभा देहातों में रहने वाले मेहनतकश लोगों का एकमात्र
मिला-जुला सुदृढ़ संगठन है | हम लोग मछुआ हैं, सहनी, मुखिया, खुनौट, सोरहिया, बाँतर, तीयर, जलुआ, माँझी, खानदानी उपाधि
किसी की कुछ है तो किसी की कुछ | मगर हैं फिर भी सब निषाद | किसी युग में हमारी संख्या थोड़ी थी उन दिनों नाव चलना और मछलियाँ पकड़ना
ही हमारे पेशे थे | हम हमारी बिरदारी खेती भी करती है, मजदूरी भी | पढ़-लिखकर कुछ-एक भाई-बहन ऊंचे ओहदों पर
भी पहुँच रहे हैं | समूचे भारत की बात छोड़ दें | बिहार की ही लीजिए | अपनी बिरादरी के सैकड़ों लड़के
आम बिहारी लड़कों और दूसरे-दूसरे प्रदेश के प्रवासी लड़कों के साथ मिल-जुलकर
स्कूल-कॉलेजों में ज्ञान-विज्ञान हासिल कर रहे हैं |
जात-पाँति की पुरानी दीवारें डह रही हैं, नए प्रकार की विशाल
बिरादरी उनका स्थान लेने आ रही है | एकता का यह आलोक देहातों
में भी प्रवेश कर चुका है | जब ऐसी बात है तो नाहक ही हमारी
बिरादरी के चंद अगुआ निषादों के अलग संगठन का शंख फूंक रहे हैं | दो-चार स्वार्थी निषादों का इससे फायदा होगा, यह
मैं मानता हूँ | मैथिली सभी, राजपूत
सभा, यादव महासभा, दुसाद महासभा आदि जो
भी सांप्रदायिक संगठन हैं सभी का बायकाट होनी चाहिए | इन
महासभाओं के नेता आम आदमी के एकता में दरार डालने का ही एकमात्र काम करते हैं | देहातों में रहने वाली सारी जनता का खेती-किसानी से थोड़ा-बहुत लगाव रहता
ही है ,तो कैसे कोई किसान सभा की मेंबरी से इंकार करेगा ? गढ़पोखर हमारे हाथों से न निकले, इसके लिए हमें
कोशिश करनी होगी | इस संघर्ष में निषाद महासभा,नहीं, किसान सभा जैसी जुझारू जमात ही हमारी सहायता
कर सकती है |”......467 मोहन माँझी सभी मछुआरों को लाल झंडे
के नीचे लाकर जन-आंदोलन कर अपना अधिकर पाने के लिए समग्र रूप से क्रांति का आह्वान
करता है | नागार्जुन ने कांग्रेसी व्यवस्था में लूट-खसोट का
पर्दाफ़ाश करते हुए उसे नीतियों और कार्यों भी पर चोट किया है | जब कोसी- बांध पर करोड़ों की लागत से काम शुरू होता है ,उस समय श्रमदान के नाम पर किस तरह बाबुओं का जुटान होता है साथ ही उसके
मनोरंजन के सारे समान जुटाए जाते हैं “भाइयों, खाते-पीते
परिवारों के शौकिया श्रमदानी सज्जनों की बात ही और थी | उनकी
सुविधा के अनेक साधन कोसी-किनारे जुट गए थे | चाय-बिस्कुट,पान, सिगरेट, शर्बत-मिठाई, पूड़ी-कचौड़ी, छुड़ा-दही, रेडियो-सिनेमा, माइक-लाउड स्पीकर, अखबार और पत्र-पत्रिकाएँ...कैमरावालों की भरमार थी ही, पास-पड़ोस के परिचित कांग्रेसी नेताओं की सिफ़ारिश से वे पटना या दिल्ली से
आए हुए ऊंचे पदाधिकारियों के साथ भीड़ में खड़े हो जाते और फोटो खींच जाती | इन लोगों का श्रमदान क्या था ,बैठे-ठाले का
अच्छा-खासा मनोरंजन था |”……….469 वहीं छोटे-छोटे किसान-मजदूर
रोजगार की तलाश में अपना श्रमदान देता है उसके बदले में उसे कई दिनों की भूख मिलती
है “भूँजा फरही की पोटली बांधकर कोसी किनारे गया मैं इसलिए कि दस रोज बांध की
मजूरी करूँगा ,खाना-खेवा निकालकर कम से कम अठारह आना-बीस आना
तो बचा ही लूँगा | चार-छै जून साथ के दाने चबा-चूबकर भूख को
ठगता रहा , फिर उधार की खिचड़ी चलने लगी | पहली बार जिस बाबू ने नाम लिखा, वह दूसरी बार नहीं
मिला | दूसरे दिन जो भाई काम लेने आए ,
दो रोज उनका भी पता नहीं | मिट्टी काढ़ते- ढाते बारह दिन बीत
गए ,छदाम का भी दर्शन नहीं हुआ | उधर
खाते पर चावल-दाल-नमक-हल्दी-मिर्चा –ईंधन देनेवाला भला क्यों छोड़ने लगा ? कुदल रख ली ,टोकरा रख लिया ,
धोती तक उतार ली ! कमर से गमछा लपेटे दो दिन, दो रात का भूखा
मैं घर लौट आया हूँ |” ........470 इस व्यवस्था का विरोध
करते हुए खुरकुन आवेश में कहता है “ हे भगवान कैसा जमाना आ गया है ! पचास
करोड़-पचास करोड़ रुपइया लगाकर दस-पंद्रह साल में कोसी-बांध तैयार होंगे, हजारों का महवारी चारा पानेवाले पचासों आफिसर बहाल हुए है | लाखों के ठेके मिले हैं ठेकेदारों को |करोड़ों का
सामान बीरपुर में लाकर अटा दिया गया है | रात-दिन हवाई जहाज कोसी इलाके में मडराते रहते हैं | पानी की तरह रकम बहाई जा रही है | फिर गरीब मजदूरों
के साथ ही सुराजी बाबू लोग इस तरह का खिलवाड़ क्यों करते हैं ? ऐसा अनर्थ तो न कभी सुना ,न देखा ! हे भगवान, सृष्टि के इन्हीं तौर-तरीकों से तुम्हें अपने विधातापन का स्वाद मिलता है
? हिन्द-हितकारी समाज नहीं, पेट
हितकारी समाज ! छी-छी-छी-छी….”….471 कांग्रेस में बाबुओं की
संख्या बढ़ रही थी ,गांधीजी ने जिस उद्देश्य से कांग्रेस की
स्थापना की थी वह पार्टी केवल जमींदार वर्ग के लोगों का हित साधन का जरिया बन गया | आईएसे हित साधन के उपाय हम नागार्जुन के अन्य उपन्यासों में भी देख सकते
हैं जहाँ वह सर्वहारा वर्ग को खुलकर लुटता है | भोला, खुरकुन, रंगलाल,टून्नी आदि
जैसे सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे चरित्रों का जीवन अभावों में बीतता रहा
है वहीं पूंजीपति वर्ग ऐसे लोगों के शोषण करने के लिए किसी भी हद को पार कर रहा है
| मोहन मांझी ऐसे ही सर्वहारा वर्ग के लोगों के अधिकार की
रक्षा के लिए किसान सभा जैसे जुझारू संगठन का मेम्बर बनाकर संघर्ष करने की शक्ति
अर्जित कर जमींदारों के विरुद्ध तैयार करता है | उन्होंने
सारे किसान भाइयों को लेकर वार्षिक सम्मेलन करता है जिसमें यह निर्णय लिया जाता है
कि “कम से कम पाँच वर्षो तक की मुहलत
तक़ावी वसूली के लिए जरूर मिलनी चाहिए | इस निश्चित अवधि के
बाद किसान तक़ावी की यह रकम अपनी सिविधा के अनुसार कई किस्तों में लौटाएँगे | एक दुसरे प्रस्ताव के द्वारा गढ़पोखर के तथाकथित ने मालिकों को यानि सतघरा
के जमींदारों को सम्मेलन ने आगाह किया था कि वे युग की आवाज को अनसुनी न करें , मलाही-गोंढियारी के मछुओं को गरोखर से मछलियाँ निकालने के पुश्तैनी हकों
से वंचित करने की कोई भी साजिश कामयाब नहीं होगी | रोजी-रोटी
के अपने साधनों की रक्षा के लिए संघर्ष करनेवाले मछुए असहाय नहीं हैं, उन्हें आम किसानों और खेत-मजदूरों का सक्रिय समर्थन प्राप्त
होगा......517 इस तरह “मछुआ –संघ का रुख
साफ था | सर्वे की पुरानी सेटलमेंट से गढ़पोखर का राजस्व
निर्धारित हुआ- सौ रुपए प्रति वर्ष; यह सरकारी खाते में
जल-कर के तौर पर दर्ज होता आया था | देपुरा के जमींदार
गढ़पोखर की तरफ से इतनी ही रकम साल-साल सरकारी खजाने में जमा करते आए थे | यह दूसरी बात थी कि साल-दो साल या दस-पाँच साल का बंदोबस्ती का पट्टा
लिखकर देपुरा के मछुओं से काफी रकम ऐंठते आए थे और अब मछुओं में जन-जागरण का आभास
पाकर इस झमेले से हमेशा के लिए छुटकारा पा गए थे | नए मालिक, सतघरवाले ,अभी दस-पाँच वर्ष पुरानी अमलदारी से
जितना-जो कुछ फायदा उठाने के सपने देख रहे थे | बस ये
तथाकथित नए मालिक थे | गढ़पोखर के वास्तविक नए मालिक तो हमारी
सरकार थी .... जमींदारी उन्मूलन के बाद देपुरावालों का कोई हक नहीं रहा गया था
गढ़पोखर पर | यह विशाल जल-संपाती अब जनता की थी | मगर नौकरशाही भ्रष्टाचारों और कानून असंगतियों के चलते जन-जीवन के साथ
नेतुका खिलवाड़ अब भी चल रहा था | मछुआ संघ की तरफ से कई
मेमोरेंडम पाटन और दिल्ली के महाप्रभुओं की सेवा में भेजे जा चुके थे | लिखित और मौखिक दोनों प्रकार से जिला-अधिकारियों तक यह बात बार-बार
पहुंचाई जा चुकी थी | मछुओं का संघ तय कर चुका था कि किसी भी
स्थिति में घुटने नहीं टेकेंगे | सतघरावालों का नया प्रभुत्व
गैर-कानूनी है, सर्वथा गलत है, वे
गढ़पोखर के सीमाओं के अंदर उन्हें घुसने नहीं देंगे |”………522 इसके लिए अन्ततः मंगल,
माधुरी,नकछेड़ी आदि अपने अधिकार की रक्षा के लिए सभी को जेल
जाने के लिए प्रस्तुत हो जाता है | “ नागार्जुन ने ‘वरुण के बेटे’ उपन्यास में वर्ग संघर्ष का चित्रन
किया है | यह संघर्ष जमींदारों और मछुआरों के बीच है | कथा का आरंभ ही गरीब वर्गों की कहानी से होता है |
यह मछुआरे संघर्ष के बावजूद अत्यंत गरीबी और फटेहाली का शिकार है | मल्लाही और गोढ़ियारी गाँव की गरीब जनता (मछुआरों) का संघर्ष ही उस
उपन्यास का केंद्र-बिन्दु है | इस उपन्यास में कथाकार ने आम
गरीब जनता को अधिक शक्तिशाली दिखलाने के लिए साम्यवादी दर्शन का प्रभाव ग्रहण किया
है और सर्वहारा वर्ग में राजनीतिक चेतना का सूत्रपात किए हैं | सतघरा के बाबू लोग गढ़-पोखर से मल्लाहों को बेदखल करना चाहते हैं | मैथिल जमींदारों के इस चल के विरुद्ध मछुआरे संगठित होकर लड़ते हैं | ‘वरुन के
बेटे’ का निम्नवर्गीय पात्र गोनर बाबा कहते हैं “ यह पानी
सदा से हमारा रहा है किसी भी हालत में हम छोड़ नहीं सकते |
पानी और मिट्टी न बिका है और न कभी बिकेगा | गढोखर का पानी
मामूली पानी नहीं , वह हमारे शरीर का लहू है , जिंदगी का निचोड़ है |” इस उपन्यास का एक महत्वपूर्ण
पात्र मोहन मांझी मछुआरों को अत्यधिक सचेत करते हुए कहता है –‘ गढ़-पोखर हमरे हाथों से न निकले इसके लिए हमें कोशिश करनी होगी | इस संघर्ष में निषाद महासभा नहीं , किसान सभा जैसी
झुझारू जमात ही हमारी सहायता करेगी | यहाँ मछुओं के बीच स्पष्टतः वर्गीय चेतना को
रेखांकित किया गया है | जहां जातीय संकीर्णता की कोई जरूरत
नहीं दिख पड़ती | इस उपन्यास के मछुआरे जमींदारों के विरुद्ध
संघर्ष करते हुए नारा लगाते हैं “ इंकलाब जिंदाबाद.... हक की
लड़ाई जीतेंगे ,गढ़-पोखर हमारा है |
नागार्जुन ने अपने उपन्यासों में मजदूरों और किसानों के बीच जागृत होते हुए वे
वर्ग संघर्ष को रेखांकित किया है | उनके किसान-मजदूर पात्र
अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं और अधिकारों के लिए एकजुट हो रहे हैं | यह संघर्ष साम्यवादी राजनीति का द्योतक है | नागार्जुन की किसान चेतना – रवीन्द्र राय , जनपथ, अक्तूबर, 2011, बाबा नागार्जुन विशेषांक ,संपादक – अनंत कुमार सिंह
,पृ॰ 63 से onward वरुण के बेटे
नागार्जुन के उपन्यासों में चित्रित ग्रामीण समाज सामंतवादी प्रभाव की गिरफ्त में है | पूंजीवाद और साम्यवाद के अवशेषों का तालमेल शोषितों के विरूध्द उभर कर
आया है, किन्तु नागार्जुन इतिहास के इस नियम को प्रमुखता
देते हैं कि परिवर्तन को रोक पाना बड़ी
शक्तियों के लिए भी कठिन होता है | इसीलिए समाज की उपेक्षित इकाई एक
दिन सचेत होती हैं , संगठित होती हैं और वही परिवर्तन की
प्रक्रिया में सबसे आगे जाती हैं | नागार्जुन का उपन्यासों
का समाज शास्त्र स्त्र अपने गहरे अर्थ में निम्नवर्गीय जनता की समस्याओं और उनके
द्वारा संगठित होकर उसके प्रतिरोध करने के विभिन्न तरीकों से जुड़ा हुआ है | नागार्जुन अपने आलोचनात्मक विवेक से सभी उपेक्षित जातियों को उसी
किसान-मजदूर वर्ग से जोड़ते हैं जो सर्वहारा का वास्तविक रूप में प्रतिनिधित्व कर
सके | ‘बाब बटेसरनाथ’ में नागार्जुन
बेदखली के खिलाफ किसानों के एकजुट जनवादी चरित्र का अंकन करते हैं | किसान संघर्ष में विजयी होकर स्वतन्त्रता, शांति की
पताका फहराते हैं – “एक बूढ़ा वटवृक्ष इसके मुख्य नायक की भूमिका का पार्ट अदा करता
है | वटवृक्ष का मानवीय कर्ण किया जाता है |अवश्य ही यह लोक चरित्र को नवीन साहित्यिक साँसकर प्रदान करने का प्रयास
है |’’ –प्रो0 प्रकाशचंद गुप्त – कल्पना, मार्च 1954,पृष्ठ -62 ----158 नागार्जुन का समस्त औपन्यासिक कृतित्व इस बात
की बहुत अच्छी मिसाल है कि पात्रों और परिवेश की सही पहचान कैसे किसी लेखक के लिए
रक्षा-कवच का काम देती है और कैसी भी कलात्मक कलाबाजी की अपेक्षा लेखक के लिए
जिंदगी की सही और मजबूत पकड़ ही उसे बहुत-सी गलतियों से बचाए रख सकती है | नागार्जुन जब कभी भी लड़खड़ाने को होते हैं,अपने
परिचित परिवेश और उसमें से तरासे गए पात्रों की घनिष्ठ आत्मीयता उनके लिए एक रोक
साबित हुई है | प्रोफेसर प्रकाशचंद गुप्त ने नागार्जुन की शक्ति के इस स्त्रोत को
स्पष्ट करते हुए लिखा है कि –“ उनके कठोर अनुभवों की ज्वाला में ताप कर उनकी
प्रतिभा सोने के समान चमकी है | नागार्जुन की प्रेरणा शिल्प
के कौशल से नहीं , वरन जीवन-अनुभवों की गहराई और तिक्तता से
शक्ति पाती है |नागार्जुन जन-मन के साथ गहरी आत्मीयता और
तादात्म्य स्थापित करते हैं | उनकी साहित्यिक शक्ति का यही
आधार है |” प्रेमचंद और यशपाल की तुलना में नागार्जुन के
उपन्यासों का फ़लक बहुत छोटा और सीमित है |इन लोगों के समान
देश के राजनीति आंदोलनों को कथाबध्द करने की महत्वाकांक्षा से पीड़ित नहीं दिखाई
देते |इसके विपरीत सीमित क्षेत्र की बेहद छोटी और सामान्य
घटनाओं को लेकर ही उनके उपन्यासों का ताना-बाना बुना गया है | ऐसा नहीं है कि नागार्जुन के उपन्यास राजनीति से अछूते हैं | एक गहरी राजनीति चेतन उसमें रची बसी है | लेकिन वह
राजनीतिक चेतना साधारण लोगों के अपने अभावों और अनुभवों की आंच में तपी राजनीति
चेतना है | बल्कि उस चेतना की अपनी आग ही उसकी सफलता –असफलता
की कसौटी भी बनायी जा सकती है | यानि वे उपन्यास जिस सीमा तक
लेखकीय घुसपैठ से मुक्त रहकर आम जनता की संघर्ष और जद्दोजहद को, उनकी क्रांतिकारी चेतना को , उसकी चारित्रिक
जुझारूपन को उभर सकें हैं, वे उसी हद तक सफल और सार्थक भी
हैं और जहाँ वे ऐसे नहीं कर सकें हैं , उन्हें ढकिया कर लेखक
आगे आ जाता है तो आम जनता की वह पूरी लड़ाई नकली लगाने लगती है और सारा संघर्ष , ऊंची आवाज में लगाए गए नारों और शोर के बावजूद प्रभावहीन हो जाता है | ‘ बलचनमा’ का बलचनमा और ‘वरुण के बेटे’ के खुरखुन और मधुरी आदि पात्र शोषण और
अन्याय के शिकार हुए हैं और अन्याय तथा शोषण की लंबी प्रक्रिया से गुजर कर वे उसके
वास्तविक स्वरूप को समझने की कोशिश करते
हैं और अपने हक की लड़ाई अपनी समूहिक शक्ति को संगठित करके बिलकुल अपने ढंग से लड़ते
हैं | बलचनमा और मधुरी की क्रांतिकारी चेतना उधर ली हुई या
ऊपर से ओढ़ी हुई चेतना न होकर उनके अपने संघर्षों से उपजी चेतना है | यह बात लग है कि कहीं –कहीं उत्साह का अतिरेक यहाँ भी उसकी विश्वसनीयता
को क्षति पहुँचता है |
नागार्जुन के पात्रों
बलचनमा, दुखामोचन,
ताराचरण, जैकिसुन , कामेश्वर, मधुरी, गोरी आदि सभी को समाज विरोधी, प्रतिक्रियावादी तत्वों की पूरी पहचान है |
अँग्रेजी सरकार, जमींदार, धार्मिक
आडंबर ,सामाजिक रूढ़ियाँ और कुरीतियाँ आदि बहुत सी चीजें हैं , जिन्होंने जातीय संस्कृति और गृह –उद्योग –धंधों का विनाश कर दिया है | इसीलिए नागार्जुन के पात्र इस सारी चीजों के विरोध में आम आदमी के हक की
लड़ाई के लिए जमीन तैयार करते दिखाई देते हैं | बहुत कुछ यही
कारण है कि पूरे प्रगतिशील कथा –साहित्य में नागार्जुन ही एक मात्र ऐसे लेखक है , जिनमें विधायक तत्वों की ऐसी प्रचुरता और बाहुल्य देखा जा सकता है | ‘रतिनाथ की चाची’ में एक ओर
जहाँ वैधव्य के अविशप से पीड़ित नारी की लाचारी का करूण चित्रण है, वहीं ताराचरण के माध्यम से लेखक सड़क की मरम्मत ,ग्राम-सुधार
और श्रमदान की बात उठा कर साधारण जनता के हितों और संघर्ष से भी उसे जोप्ड सकने
में सफल होता है | ‘नई पौध’ में पूरी की पूरी युवा-पीढ़ी अनमेल विवाह के विरोध में खड़ी होकर दहेज के
कारण गुणवती कन्या के लिए भी सत्पात्र के
अभाव की समस्या से झुझती दिखाई देती है | ‘कुंभीपाक’ में लेखक प्रेमचंदयुगीन वेश्या समस्या को
किंचित भिन्न धरातल पर उठता है |भारतीय समाज में स्त्री की
सर्वव्यापी घुटन और असंतोष से जोड़कर स्त्री की आर्थिक निर्भरता की बात करता है , क्योंकि आर्थिक निर्भता के अभाव में स्त्री-स्वतन्त्रता का कोई अर्थ नहीं
रह जाता है | ‘उग्रतारा’ में तो लेखक दैहिक पवित्रता का परंपरा गत और रूढ़ि प्रभाव मण्डल तोड़कर मन
की पवित्रता की बात करता है , जिसमें बहुत से सामाजिक
रूढ़ियाँ और वर्तनाएँ अपने-आप चटख कर टूट जाती हैं | ‘वरुण के बेटे’ में एक ओर बाढ़ पीड़ित क्षेत्र में
सहायता का अभियान है, तो दूसरी ओर सतघरा के जमींदार से
गढ़-पोखर के मछलियों को लेकर व्यापक संघर्ष की भूमिका भी उपस्थित है | ‘बलचनमा’ में सान 34 के
भूकएमपी के लिए राहत कार्य और उसके बाद के किसान-आंदोलन के संगठन की एवं उसके
संघर्ष की विस्तृत चर्चा है | ‘दुखमोचन’ में स्वतन्त्रता के बाद किसानों में आत्मनिर्भरता का आह्वान और किसान
आंदोलन की अनुगूँज सुनाई देती है | ये सारी बातें ऐसी है
जिनके लिए समाजवाद का सिध्दांतशास्त्र पढ़ना जरूरी
नहीं है , ये साधारण लोगों की अपने परिवेश की सामान्य
यांत्रिकता नहीं दिखाई देती |
“उपन्यासकार कथा
के माध्यम से जीवन के विविध पक्षों एवं परिस्थितियों का उदघाटन और विवेचन करता है |अतएव जीवन के अनुभूत सत्यों का
चित्रण उपन्यास में सहज व स्वाभाविक है | वर्तमान समाज का वर्गमूलक स्वरूप, सामान्य मानव
जीवन की कुंठाएँ ,अतृप्त वासनाएँ,
अर्थाइक वैषम्य ,गरीबों का शोषण आदि सामाजिक समस्याओं से
उपन्यासकार का मानसलोक निरंतर प्रभावित होता रहता है | जीवन
के विविध कटु –मधुर अनुभवों से जीवन और जगत के संबंध में वह कुछ निष्कर्षों पर
पहुँचता है |इन्हीं इंष्कर्षों से जीवन के प्रति उसके मन में
विशिष्ट विचार निर्मित होते हैं | धीरे-धीरे उपन्यासकार अपने
जीवन संबंधी विचारों को जीवन के प्रति कुछ विशेष दृष्टिकोण में समाहित कर लेता है | यह विशिष्ट दृष्टिकोण ही उपन्यासकार के जीवन-दर्शन के अंग रूप में
उपन्यासों में अभिव्यक्ति पाते हैं |”- मार्क्सवाद और
उपन्यासकार यशपाल –डॉ0 पारसनाथ मिश्र –पृ0-217-----149 जमींदार ही गाँव का मालिक
होता था | समस्त ग्रामीण जनता उन्हीं के इशारों पर चलती थी | ग्रामीणों को अपने मन से कोई कार्य करने का अधिकार नहीं था | यदि वे भूल से भी अपने मन का कुछ कर लिए तो उन्हें जमींदारों के तरफ से
बड़ा से बड़ा दंड दिया जाता था , किन्तु स्वतन्त्रता के पश्चात
निम्न वर्ग में भी चेतना का प्रादुर्भाव हुआ और वे भी जमींदारों द्वारा किए जा रहे
अत्याचारों का करारा जवाब देने के लिए जागरूक हो गए |
नागार्जुन की प्रतिक्रियाएँ सहज-स्फूर्त होती थीं | वे गरीब
किसानों, खेतिहर-मजदूरों को बहुत करीब और सहानुभूति से देखते
थे, लेकिन उन्हें जाति-बीरदारी के आधार पर किसानों का
विश्लेषण कभी नहीं किया | वे वर्ग की धारणा को लेकर चलते हैं
| यह सुसंगत दृष्टि उन्हें मार्क्सवाद से मिली और इसे
उन्होंने अंत तक नहीं छोड़ा | नागार्जुन जन-आंदोलन के समर्थक
थे और शोषण से मुक्ति पाने हेतु जन-आंदोलन अचूक अस्त्र है |नागार्जुन
ऐसे आंदोलन के प्रति सदैव प्रतिबध्द रहे और प्रतिभागी भी,
क्योंकि शोषण और जातिवाद दोनों को निर्मूल करने के लिए वर्ग-संघर्ष और वर्ग-संगठन
जरूरी है |
...................................
1. जनपक्षधर क्रांतिचेता : नागार्जुन – रणविजय कुमार ,जनपथ ,
अक्तूबर-2011 – पृ॰ 102
2. जनपक्षधर क्रांतिचेता : नागार्जुन – रणविजय कुमार ,जनपथ ,
अक्तूबर-2011 – पृ॰ 102
3. नागार्जुन रचनावली –खंड-4 , संपादक –मिश्रा,शोभकान्त , राजकमल प्रकाशन,पहला
संस्करण-2003,पृ॰ - 49
4. नागार्जुन रचनावली –खंड-4 , संपादक –मिश्रा,शोभकान्त , राजकमल प्रकाशन,पहला
संस्करण-2003,पृ॰ - 73
5. नागार्जुन रचनावली –खंड-4 , संपादक –मिश्रा,शोभकान्त , राजकमल प्रकाशन,पहला
संस्करण-2003,पृ॰ – 167
🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
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