दलित जीवन का एक कभी न अंत होनेवाला आख्यान ‘थमेगा नहीं विद्रोह’ पेशे से वरिष्ठ पुलिस अधिकारी श्री उमराव सिंह जाटव का प्रथम उपन्यास ‘थमेगा नहीं विद्रोह’ एक विशिष्ट उपन्यास है जो जातिगत शोषण के एक दीर्घकालीन कथा को विश्वसनीय तरीके से व्यक्त करता है। उमराव सिंह जाटव का यह उपन्यास दलित आंदोलन का एक सोचे-समझे सायास प्रयत्न का नतीजा है और इसे पढ़ते हुए पाठक को निरंतर इस बात का अहसास बना रहता कि इसका सृजन जाटवजी ने काफी सोच समझकर पूरा शोधकार्य करते हुए धैर्यपूर्वक किया है अत: यह किसी रचनात्मक दबाव के बजाय सश्रम किए गए लेखन का प्रतिफल है। स्वयं लेखक का इस विषय में कथन है , “ इस प्रकार , झक मारकर लगभग बिना मेरे अनुमोदन-आग्रह के यह तय हो गया लगता है कि जीते-जागते पात्रों को लेकर ही कथा बुनने का दुस्साहस किया जाए।” [1] इस प्रकार निस्संकोच कहा जा सकता कि यह उपन्यास एक बड़े मनोमंथन का परिणाम है। इस उपन्यास की कहानी किसी व्यक्ति की कहानी नहीं है और न ही इक कथा का कोई पारंपरिक अर्थों में नायक या नायिका है। वास्तव में यहाँ किसी व्यक्ति-विशेष की कथन होकर समग्र समुदाय और जाटवों-गूजरों के एक गाँव की
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BHARAT KI EKTA UAR HINDI WYAWAHARIK PAKSHA /भारत की एकता और हिंदी का व...
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आदिवासी क्षेत्रों में विकिरण की त्रासदी
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आदिवासी क्षेत्रों में विकिरण की त्रासदी अजय कुमार चौधरी सहायक प्राध्यापक , हिन्दी पी . एन . दास कॉलेज , पलता , उत्तर 24 परगना , पश्चिम बंग Email – ajaychoudharyac@gmail । com संपर्क - 8981031969/ 98742455556 महुआ माजी के उपन्यास “मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ” में चित्रित आदिवासी अस्मिता की पहचान जल , जंगल , जमीन से विस्थापित होकर पुरखो की संस्कृति से अलग होना साथ ही विकास के नाम यूरेनियम खनन से होने वाली विकिरण प्रभाव की त्रासदी है | आदिवासी भारतीय समाज की एक ऐसे अनसुलझे पहलू से जुड़ा हुआ है जिसको सुलझाने में भारतीय सामाजिक व्यवस्था में अमूलचुल परिवर्तन की आवश्यकता होगी | आदिवासी भारतीय संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था से दूर घने जंगल , पर्वत , पहाड़ की आदिम खुशबू है जो इस धरा की प्राकृतिक नियम के अनुसार जीवन यापन करते हैं किन्तु इस आधुनिकता के विकास दौर में हम इतनी तेज गति से दौड़ रहे हैं कि आदिवासियों की जल , जंगल , जमीन का दोहन कर प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन कर इनके जीवन को त्रासदी की भयंकर मर झलने के लिए छोड़ देते हैं | वर्तमान में विकास के नाम से जिस तर
आंबेडकर.... एक दृष्टि
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आंबेडकर ..........एक दृष्टि अजय कुमार चौधरी पिछले दिनों अंबेडकर जयंती थी इसलिए डॉ. भीमराव आम्बेडकर को लेकर विद्वजनों में चर्चाएँ गरम थी कोई गांधीवादी विचार धारा से लैश गांधी को महान बता रहे थे , तो कोई आंबेडकरवादी आंबेडकर को महान बता रहे थे , मेरा मानना है कि दोनों ही इस देश की महान विभूतियाँ है दोनों का क्षेत्र एक होने की वजह से कई वैचारिक भ्रांतियाँ थी तो कई विंदुओं पर एक भी | वर्तमान समय में कई विद्वान है जिनकी विचारधारा एक दूसरे से नहीं मिलती है तो क्या हम एक को महान और एक को तुक्ष बोल सकते हैं , नहीं | ठीक उसी प्रकार बाबा और गांधी भी अपने समय के युगपुरुष है दोनों की विचार धारा महान है दोनों ने देश को नई दिशा दी | दोनों में से किसी एक को महान बता कर हम एक का अपमान ही करेंगे , इसलिए कम से कम देश के महान विभूतियों के साथ आप लोग ऐसा व्यवहार न करें | डॉ0 आंबेडकर की विचारधारा भले ही गांधी से न मिलती हो और न ही गांधी की विचार धारा आंबेडकर से , लेकिन दोनों एक सिक्के के दो पहलू है , किसी एक के बिना सिक्का खोटा हो जाएगा इस ल
हिंदी का विश्व स्वरूप
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हिन्दी का विश्व स्वरूप अजय कुमार चौधरी प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक राजभाषा होती है जिससे राजकीय व प्रशासनीय कार्य का सम्पादन किया जाता है | भाषा वह साधन है जिसके माध्यम से मनुष्य एक-दूसरे से अपनी भावना का आदान-प्रदान करता है , अपनी संवेदनाओं को व्यक्त करता है | हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है | भारतवर्ष के प्रायः प्रान्तों में बोली और समझी जाती है | किसी भी भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा तब दिया जा सकता जब वह पूरे राष्ट्रवासियों द्वारा बोली और समझी जाए | भारतवर्ष को आजादी मिले 67 वां वर्ष हो चुका है , पर विडम्बना यह है कि हम आज भी भाषायी स्तर पर मानसिक रूप से गुलाम बने हुए है | भारतवर्ष लगभग 200 वर्षों तक अंग्रेजों का उपनिवेश रहा था | अंग्रेज़ अपनी औपनिवेशिक शक्ति को बकरार रखने के लिए सबसे पहले भारतीय कौमी एकता को निशाना बनाया | इस कौमी एकता को तोड़ने के लिए कभी भाषायी हथियार , तो कभी धार्मिक तो कभी सांस्कृतिक हथियारों का सहारा