आंबेडकर.... एक दृष्टि



आंबेडकर ..........एक दृष्टि


अजय कुमार चौधरी
                                   पिछले दिनों अंबेडकर जयंती थी इसलिए डॉ. भीमराव आम्बेडकर को लेकर विद्वजनों में चर्चाएँ गरम थी कोई गांधीवादी विचार धारा से लैश गांधी को महान बता रहे थे ,तो कोई  आंबेडकरवादी आंबेडकर को महान बता रहे थे, मेरा मानना है कि  दोनों ही इस देश की महान विभूतियाँ है दोनों का क्षेत्र एक होने की वजह से कई वैचारिक भ्रांतियाँ थी तो कई विंदुओं पर एक भी | वर्तमान समय में कई विद्वान है जिनकी विचारधारा एक दूसरे से नहीं मिलती है तो क्या हम एक को महान और एक को तुक्ष बोल सकते हैं, नहीं |  ठीक उसी प्रकार बाबा और गांधी भी अपने समय के युगपुरुष है दोनों की विचार धारा महान है दोनों ने देश को नई दिशा दी | दोनों में से किसी एक को महान बता कर हम एक का अपमान ही करेंगे ,इसलिए कम से कम देश के महान विभूतियों के साथ आप लोग ऐसा व्यवहार न करें | डॉ0 आंबेडकर की विचारधारा भले ही गांधी से न मिलती हो और न ही गांधी की विचार धारा आंबेडकर  से, लेकिन दोनों एक सिक्के के दो  पहलू है , किसी एक के बिना सिक्का खोटा हो जाएगा इस लिए विद्वानों  से अनुरोध है कि वे अपने महान विभूतियों का सम्मान करें |
          जहां बात जाति-व्यवस्था की हो वहाँ बाबा अंबेडकर का नाम न आए तो यह आलोचना बेमानी होगी ,बाबा दलितों के मसीहा हैं , कोई भी व्यक्ति किसी वर्ग का अचानक मसीहा नहीं बन जाता है मसीहा बनने की परिस्थियाँ उनके अनुकूल होनी चाहिए | जब हम बाबा के व्यक्तिगत जीवनी में झाँकते है तो पाते है कि इनकी जिंदगी विसंगतियों से भरा पड़ा है | पिता फौज में नौकरी करते हैं उनके पिता का शिक्षा के प्रति विशेष आग्रह था वह अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाना चाहता था तभी तो सेना से सेवानिवृत होने के बाद बंबई के तंग गलियों के तंग मकान में रहकर भी पढ़ाई-लिखाई को कायम रखते हैं | 
                       ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार के नियम के तहत फ़ौज में सभी को अनिवार्य रूप से शिक्षा दी जाती थी | फौज के लड़के –लड़कियों के लिए दिन का स्कूल और बड़े बुजुर्गों के लिए राता में पाठशालाएँ अलग लगती थी | उनके पिता ने शिक्षक का डिप्लोमा प्राप्त किया था | वे चौदह वर्षों तक हेड मास्टर रहे | फौज में रहते हुए किसी दलित  का इस पद पर होना उस समय गर्व की बात थी | लेकिन परिस्थितियाँ  सब समय एक जैसी  नहीं होती है |1891 में जब लॉर्ड किचनेर सैनिक को जातिगत व्यवस्था के आधार पर बाँट दिया तो उस समय महार और चमारों पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा | अंग्रेज़ ब्राह्मणवाद के दवाब में आकार निम्न जतियों को फौज से निकाल जाने का फरमान सुनाया | इस घटना के पीछे का कारण यह है कि 1890 में बड़ौदा के महाराज सयाजीराव गायकवाड को मिलिट्री का गार्ड ऑफ ऑनर दिया गया इसी सिलसिले में उन्हें बंबई आना हुआ| उस समय सभी मिलिट्री के लोगों से हाथ मिलाना पड़ा, इसी क्रम में वो लक्ष्मण मेहतर से भी हाथ मिलाना पड़ा जो जाती के महार थे |  बस, महाराज को इस बात का बुरा लगा कि उसे किसी नीच जाति से हाथ मिलाना पड़ा और उन्होंने अंग्रेजों पर दवाब बनाया कि  मिलिट्री से निम्न जतियों को बाहर रखा जाए | उस दौर में दलित अपने आप  को हिन्दू समझते थे  किन्तु सवर्ण लोग उन्हें हिन्दू समझने के लिए तैयार नहीं थे | द्विज समाज हठी था और बदमिजाज भी | अंग्रेजों  के ताबेदारी कर बड़े-बड़े पद  लिए थे | सत्ता के नशे में अब वे दलितों पर रौब गाँठते थे | समाज में वैसे भी उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी पर जब से फौज में दलितों के विरूध्द फरमान आया तो उनके पैर तले कि जमीन  खिसक गई | क्योंकि इसके जीवन आर्थिक आधार ही फौज था | महार और चमार के परिवार फौज में रहकर अपनी सामाजिक स्थिति का सुधार कर रहे  थे, शिक्षा में अपनी पैठा बना रहे थे  ,लेकिन जब से फौज से इन जातियों का बहिष्कार हो गया ,फिर से वो अभिशप्त जीवन जीने के मजबूर हो गए |
फौज में  दलितों के विरूध्द  फरमान लागू होने के दो वर्षों के बाद ही सूबेदार रामजी सकपाल नौकरी को छोड़ना  पड़ा | नौकरती छोड़ने के बावजूद भी वे अपने बच्चों को शिक्षा से दूर नहीं रखें | एक शिक्षक होने के नाते वे शिक्षा के महत्व  को अच्छी  तरह समझते थे | अपने बच्चों के अच्छी शिक्षा के लिए बंबई चले जाते हैं | तंग गलियों के छोटे से मकान में रहते हुए भीमराव अपनी माध्यमिक शिक्षा पूरी करते हैं | माध्यमिक प्रथम दर्जा में पास होने कि खबर उसके क्षेत्र में फैला जाता है | बड़ौदा  के महाराज सयाजी राव गायकवाड की  ओर से उन्हें 1911 से हर माह 25 रुपये की छात्रवृत्ति मिलने लगती है जिससे वे आगे की पढ़ाई पूरी कर सके | वे बी0ए0 पास कर महाराज की सेवा में उपस्थित हुए लेकिन किस्मत में आगे की पढ़ाई भी बदी थी  | महाराज ने आगे की पढ़ाई के उन्हें विदेश भेजा इस शर्त में जब वे  अपनी पढ़ाई पूरी लें ,बड़ौदा की सेवा में उपस्थित होना होगा | इसी दौयरन 2 फरवरी 1913 को उनके पिता की मृत्यु हो गई |
                भीमराव विदेश जाकर कोलम्बिया विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त किए जो उनक बचपन का सपना था | विदेश में रहकर उन्होंने वैचारिक धरातल का विकास किया | वे बुकर टी0 वाशिंगटन से बहुत प्रभावित थे जो मानवीय दासता और रंगभेद के विरूध्द आवाज बुलंद कर रहे थे | कोलम्बिया विश्वविद्यालय से शिक्षा पूरी करने के बाद इंग्लैंड की तरफ रुख किया | वहाँ से उन्होंने कानून और अर्थशास्त्र का गहन अध्ययन किया | डॉ0 आंबेडकर आजीवन अध्ययन में लगे रहे |
              डॉ0 आंबेडकर ने तीन  महापुरुषों को अपना प्रेणना स्त्रोत बताया है | उनमें पहले कबीर,दूसरे महात्मा ज्योतिबा फुले और तीसरे थे महात्मा बुध्द | कबीर ने उन्हें भक्ति भावना प्रदान की,ज्योतिबा फुले ने उन्हें ब्राह्मणवाद  विरोध के लिए प्रेरित किया तथा शिक्षा तथा आर्थिक उत्थान का संदेश दिया | बुध्द से उन्हें मानसिक और दार्शनिक आधार मिला, उन्हीं से दलितों का उध्दार का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ ,जिसका माध्यम था समूहिक धर्म परिवर्तन |
                               डॉ0 आंबेडकर अपनी शिक्षा पूरी कर जब विदेश दे लौटे तो अनुबंध के तहत अपनी सेवा देने बड़ौदा पहुंचे | यही से उनके जीवन को नई दिशा मिली | बड़ौदा पहुँचने पर उसकी सबसे बदी समस्या वहाँ ठहरने की हुई | दलित जाति को कौन वहाँ रहने की  जगह देगा, उनकी सबसे बड़ी समस्या थी |किसी तरह एक पारसी के सराय में रहने की जगह मिल गई ,पर शाम ढलते न ढलते वहाँ कुछ ब्राह्मणवादी विचार के लोग पहुँच जाते हैं और उन्हें वो सराय को खाली करना पड़ता है | एक विदेश से लौटे उच्च शिक्षा प्राप्त किए इंसान के साथ जानवरों जैसा व्यवहार किया जा रहा था वो अपनी शिकायत करें भी तो किसे करें ,महाराज स्वयं ब्राह्मणवादी विचार के पोषक थे उनके दरबार के सभी उच्च पदों पर द्विज विराजमान थे ,वे लोग नहीं चाहते थे की कोई महार जाति के लोग किसी उच्च पद पर आसीन हो और उसके नीचे सवर्ण को काम  करना पड़े, महाराज सवर्ण पक्षों में आकार किसी तरह की सहायता  करने से माना कर देते हैं | शाम होते ही  उन्हें पारसी का सराय को छोड़ना पड़ता है बंबई की गाड़ी रात को थी इसलिए बचे समय को गुजारने के लिए पास के किसी बगीचे में बिताना पड़ता है |हिन्दू धर्म के रहते हुए उनके समाज की ऐसी स्थिति क्यों है ? उस पर बार-बार विचार करते रहते थे | दलित परिवार में जन्म लेकर क्या उनहोंने कोई अपराध किया था ? उनके पास सिर्फ यादें बचीं थी ,जिनसे पीछा नहीं छुड़ा पा रहे थे | हिन्दू समाज की परत दर  परत खुलती  चली जा रही थी| द्वीजों के विभत्स चित्र उनकी आँखों में अभी भी रचे बसे थे |”    ब्राह्मणवादी विचार समाज में इस तरह से हावी था कि शिक्षितों को भी उसके भीतर जगह नहीं थी | समाज का  मानसिक दिवालिया हो चुका था | कौन जनता था की यही वो आदमी जिसे समाज दुत्कार रहा है भारत का भविष्य निर्माण करेगा | तत्कालीन समय में कोई भी उनके जैसा शिक्षित नहीं था फिर भी दलित होने के नाते उनकी शिक्षा का महत्व देने को कोई तैयार नहीं था ,शिक्षा से ऊंचा ब्राह्मणवादी विचारधार थी, जो समाज को कई टुकड़ों में बाँट दी थी, वेद, पुराण, उपनिषद की महत्ता थी मानवीय विचारधार के कोई जगह नहीं थीं | इंसान होकर भी इंसानियत से कोसों दूर था | डॉ0 आंबेडकर के मन में उस समय जो तूफान उठा था उसकी ताकत से समाज के जकड़ बंदियों को तोड़ा देना  चाहते थे | उसी समय उनके मन में विचार आया की जब तक हम दलितों को शिक्षित नहीं कर देगे ,उनके अधिकार को पाना असंभव है |  शिक्षा अधिकार पाने के लिए तो जरूरी है ही साथ ही साथ अपने हक के लिए संघर्ष की भी जरूरत है | नवंबर 1918 नाय गाँव ,परेल बंबई  में बाबा ने दलितों  को सम्बोधन करते हुए ऐतिहासिक भाषण दिए थे “ तुम्हारे चेहरे की दयनीय दशा देखकर, तुम्हारी निराशापूर्ण आँखों के खालीपन को महसूस कर और तुम्हारी दबी हुई जुबान सुनकर मेरा हृदय फटा जा रहा है |कितने वर्षों से तुम लोग अत्याचार की चक्की में पिसे जा रहे हो | फिर भी  तुम में साहस और स्वाभिमान पैदा नहीं होता | तुम लोग पैदा होते ही मर क्यों नहीं गए ? तुमलोगों  ने अपने इस दीन-हीन ,तिरस्कार पूर्ण जीवन से पृथ्वी पर भार क्यों बढ़ाया है ? अगर तुम अपने दीन-हीन अपमान पूर्ण  जीवन को बदल  नहीं सकते तो तुम्हारा मर जाना ही अच्छा है | स्वयं सम्मान पूर्वक जीवित रहने के लिए ,अच्छा वस्त्र और आवास प्राप्त करना तुमहरा जन्म सिध्द अधिकार है  |अगर तुम सम्मान का जीवन बिताना चाहते  हो तो संघर्ष करना पड़ेगा | अपने आप पर विश्वास करके आगे बढ़ाना होगा आत्मविश्वास ,आत्मसम्मान ,आत्मनिर्णय ,आत्मचिंतन और आत्मनिर्भर की भावनाएँ अपने आप  में पैदा करो |”  इस तरह उन्हों ने अपने प्रथम भाषण में ही दलितों को उद्वेलित कर दिया था उनके भाषण को सुनने के लिए  जन ज्वार उमड़ पड़ती थी और हो भी क्यों न दलितों के मसीहा जो ठहरें | उनके भाषण को सुनकर दलितों में आत्मसम्मान की भावना जागी | अपने अधिकार के प्रति सजग हुए | अधिकार की प्राप्ति के लिए संघर्ष के लिए लामबंध होना शुरू किए  |डॉ0 आंबेडकर ने देश के कोने –कोने का भ्रमण किया | दलित की परिस्थितियों से अवगत हुए | जहां भी गए वहाँ सवर्ण के चुनौतियों  का सामना  करना पड़ा | 31 दिसंबर 1930 को अल्पसंख्यकों की समिति के सामने गये गए भाषणों में ब्रिटिश सरकार पर जोरदार हमला करते हुए  कहते है “ब्रिटिश हुकूमत कायमा करने के लिए जिन अस्पृश्यों का उपयोगा किया गया उनकी हालत सुधारने की तरफ अंग्रेजों ने बिल्कुल ध्यान नहीं दिया | हिन्दू समाज की ओर से अस्पृश्यों पर लगातार जुल्म हो रहे हैं ,स्वतंत्रता  मिलने के बाद उन्हें देश में अपना उध्दार कर पाना संभव होगा क्या ?” मतलब समझ सकते है की समाज में जब तक समता नहीं आएगा ऐसे हालत में दलित क्या स्वतन्त्रता का लाभ उठा पाएंगे  है संदेह है | देखा जाए तो बाबा आंबेडकर ने उस समय जिस समस्या की ओर इशारा किया था आज वह समस्या मुह बाएँ वैसे ही खड़ा है  | आजादी तो मिली है पर ऐसी आजादी बेमानी होती जा रही है समाज में दलित को संवैधानिक अधिकार तो मिल गया लेकिन मानसिक रूप से आज भी प्रताड़ित किया जाता है |
          डॉ0 आंबेडकर ने जिन परिस्थितियों में अपने आप को मशाल के रूप में जला कर रखा था ,कोई आम इंसान या तो  आत्मरक्षा के लिए आत्महत्या कर लेते हैं या  फिर गुमनामी की जिंदगी के अंधेरे गलियों में भटकते हुए जीवन जीते हैं | पर बाबा ने इन दोनों मार्ग से अलग संघर्ष का रास्ता चुनते हैं | उनकी ये आत्मसंघर्ष की भावना ही करोड़ों दलितों की प्रेणना हैं  जो समता के अधिकार के लिए बाबा के द्वारा दिखाए  मार्ग पर संघर्षरत हैं –  करोड़ों दलितों की वेदना की आँसू अभी सूखे नहीं ,बाकी है अभी संघर्ष हमारा ,जीने के जद्दोजहद में |


अजय कुमार चौधरी
सहायक प्राध्यापक , हिन्दी
पी0 एन0 दास कॉलेज ,पलता
शांतिनगर ,बंगाल एनमेल,उत्तर 24 परगना , पश्चिम बंगाल
संपर्क – 8981031969
ईमेल- ajaychoudharyac@gmail.com


 

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