मुक्तिबोध के काव्य में अन्तःसंघर्ष
मुक्तिबोध के काव्य में अन्तःसंघर्ष
अजय कुमार चौधरी
सहायक प्राध्यापक,हिन्दी
पी. एन. दास कॉलेज ,पलता
Email – ajaychoudharyac@gmail।com
संपर्क- 8981031969/ 98742455556
हिन्दी साहित्य जगत की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि कवि या
साहित्यकार का महत्व मृतयोपरांत ही समझा जाता है | मुक्तिबोध के साथ कमोवेश ऐसा ही हुआ जब तक वो जीवित थे तब तक
उनकी कोई काव्य-संग्रह प्रकाश में नहीं
आया | हालांकि
प्रयोगवदी कविता की शुरुआत हम मुक्तिबोध से मान सकते हैं | ‘अज्ञेय’ के सम्पादन में 1943 में प्रकाशित ‘तारसप्तक’ के पहले कवि ‘मुक्तिबोध’ ही है | इनकी कविता प्रगतिवादी है ,जिसमें
उसकी भावनाओं और अनुभूतियों कि अभिव्यक्ति प्रतीक और बिम्ब के माध्यम से हुई है | इनकी कविता का महत्व इस बात में है कि वे अनुभवजनित विषयों को ही स्थान
दिया | एक तरह कह सकते हैं कि इन्होंने कविता में जीवन जिया | इनकी कविता की भाव-भंगिमा आम पाठकजन के लिए नहीं वरन बुध्दिजीवियों की खुराक
है | इनकी कविता की प्रतीक और बिम्ब योजन अच्छे-अच्छे
आलोचकों तक को पानी पीला चुके हैं | गजानन्द माधव मुक्तिबोध की कविता के आंतरिकता
के विषय में जब हम चर्चा केरेंगे तो उसके पूर्व हमें कवि के तत्कालीन समस्या पर
दृष्टिपात करना अवश्यसंभावी हो जाता है | इनकी कविता में जिस प्रतीक बिम्ब की योजना की गई है, जिससे
वह तत्कालीन इतिहास को प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं | 1“मुक्तिबोध
की भावात्मक ऊर्जा अशेष और अटूट थी, जैसे कोई नैसर्गिक अंतःस्त्रोत हो जो कभी चुकता ही नहीं ,बल्कि लगातार अधिकाधिक वेग और तीव्रता के साथ चला आता है | उस आवेग के जवाब में वह लगातार लिखते चले जाते थे और उनकी
यह ऊर्जा अनेकानेक कल्पनाओं –चित्रों, फैंटासियों के आकार
ग्रहण कर लेती थी | इस
कारण यह भी स्पष्ट नहीं होता था कि कोई रचना कब और कहाँ शुरू हुई और कैसे किस जगह
समाप्त हुई | अपने
अनुभवों को किसी एक सुसंयोजित निश्चित बिन्दु पर, अथवा दो बिन्दुओं के बीच फैलाकर, रचना को समाप्त करना उनके लिए शायद कठिन होता था | इसलिए उनके कविताओं में यहाँ तक कहानियों और लेखों में भी ,बदलते हुए अनुभव, भाव विचार या उनके अलग- अलग स्तरों के साथ बदलती हुई लय के साथ ,स्वर के उतार-चढ़ाव का ,या रूपगत विविधता तथा
परिवर्तन का ,अहसास
तो होता है, पर
रचना के आदि से अंत का अलग से आभास नहीं होता |” मुक्तिबोध ने काव्य की रचना की प्रक्रिया
को कलात्मक अनुभव की प्रतिक्रिया के रूप
में व्यक्त किया है | उनके मत के अनुसार 2 " रचना प्रक्रिया के भीतर कल्पना, बुध्दी , भावना और संवेदनात्मक उद्देश्य साथ
ही जीवननुभाव होता है, जो
लेखक के अंतर्जगत का अंग है, उसमें लेखक का अंतर- व्यक्तित्व ही उसके व्यक्ति के रूप में बदलता है उसका
इतिहास भी लेखक का अपना संवेदनात्मक इतिहास होता है |” मुक्तिबोध आम इंसान होना मंजूर था ,बाद में साहित्यिक और कलाकार | इनकी कविता में जो संघर्ष वह आम आदमियों का ही संघर्ष है | कवि अपने विचारों के अनुरूप ही कविता को नए आयाम देती है | उसकी कविता उसके जीवन की गाथा भी है और संग्राम भी 3“
भारतीय व्यवस्था में धर्म के ठेकेदारों के मजबूती से बढ़ाए आवरण ,शासन पर बुर्जुआ वर्ग की पकड़, बुर्जुआ लोगों की सारी विरोधी पार्टी का अनुदान देने की चाल, साहित्य और कला को अपनी विकृत रंजन प्रकृति का दस्यु बनाने की साजिश, चैन और आराम का जीवन पाने की लालसा में नकली विद्रोह वृत्तिवाले
बुध्दिजीवियों का पतनगत लुढ़कना, ऐसी स्थिति में अपने आपको
बचते हुए जीवन संग्राम चलाना |” उनकी कविता ‘अंधेरे में’ ,’ब्रहमराक्षस’, ‘चंद का मुंह टेढ़ा है’, ‘शून्य’, ‘मैं तुम लोगों से दूर
हूँ’ आदि कविता में जिस संघर्ष को दिखाया गया है | वह तत्कालीन समाज के संघर्ष के साथ-साथ उनका निजीगत संघर्ष भी जारी रहता
है | ब्रह्मराक्षस कविता में ब्रह्मराक्षस की मुक्ति का
संघर्ष 4“बावड़ी
की उन गहराइयों में शून्य/ ब्रह्मराक्षस एक पैठा है, / व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज,/ हड़बड़ाहट
शब्द /पागल से।/ गहन अनुमानिता/ तन की मलिनता/ दूर करने के लिए प्रतिपल/ पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात स्वच्छ करने -/ ब्रह्मराक्षस/ घिस रहा है
देह/ हाथ के पंजे बराबर,/ बाँह-छाती-मुँह
छपाछप/ खूब करते
साफ,/ फिर भी मैल/ फिर भी मैल!!” जिस
प्रकार ब्रह्मराक्षस अपने मुक्ति के लिए तन की मलिनता दूर करने के लिए संघर्षरत है
| उस प्रकार की छ्टपटहट हम कवि के वाणी में भी देख सकते हैं | जिस प्रकार ब्रह्मराक्षस में मध्ययुगीन सांस्कृतिक चेतना साधना के नाम पर
जो कुछ हो रहा है ,उसमें उसकी मूल आत्मा मर चुकी है केवल
उसका आंतरिक लगाव ही उसके हाथ-पैर फटका रहा है | मध्ययुगीन
यह साधन मानवीय धरातल से जुड़ा नहीं ,बल्कि अपने व्यक्तिगत
स्वार्थ से प्रेरित अपने पापग्रस्त और अभिशप्त जीवन की काली छाया से मुक्ति का
प्रयास है | इस प्रकार ब्रह्मराक्षस की साधना पापात्मा होने
के कारण कुंठित और संस्कार हीन है | ‘शून्य’ कविता में मुक्तिबोध अभाव को प्रतीक के रूप में अभिव्यक्त किए है | शून्य का अर्थ भीतरी अभाव ही मनुष्य को क्रोधी बनाता है, जिससे स्वार्थपरक
इच्छाएँ जन्म लेती है, यही इच्छाएँ मनुष्य को हिंसक बना देती
है | मनुष्य के हृदय
में प्रेवेश कर शून्य उसे बर्बर और आक्रामक बना देता है |
अनंत इच्छाओं के पैदा होने से हिंसक घटनाएँ घटती है | कवि का
मानना है कि मनुष्य का भीतरी अभाव ही उसे मनुष्य से पशु में परिवर्तित कर देता है | इसलिए विश्व में हिंसा,मृत्यु ,यूध्द और हथियारों का बोलबाला है |
5“भीतर जो शून्य है/ उसका
एक जबड़ा है/ जबड़े में मांस काट खाने के दाँत हैं;/ उनको खा जाएँगे,/ तुमको खा जाएँगे।/ भीतर
का आदतन क्रोधी अभाव वह/ हमारा स्वभाव है,/ जबड़े की भीतरी अँधेरी खाई में/ खून का तलाब है।/ऐसा वह शून्य है/ एकदम काला है, बर्बर
है,
नग्न है/ विहीन है,
न्यून है/अपने में मग्न है।/उसको
मैं उत्तेजित/शब्दों और कार्यों से/ बिखेरता
रहता हूँ/ बाँटता फिरता हूँ।/ मेरा
जो रास्ता काटने आते हैं,/ मुझसे मिले घावों में/ वही शून्य पाते हैं ।/उसे बढ़ाते हैं,
फैलाते हैं,/ और-और
लोगों में बाँटते बिखेरते,/शून्यों की संतानें उभारते।/……. /खूब मच रही है, खूब
ठन रही है,/ मौत अब
नए-नए
बच्चे जन रही है।/ जगह-जगह
दाँतदार भूल,/
हथियार-बंद
गलती है,/ जिन्हें देख,
दुनिया हाथ मलती हुई चलती है |”
‘शून्य’ कविता का संघर्ष बाह्य संघर्ष नहीं बल्कि आंतरिक है | आंतरिक अभाव या भीतरी अभाव ही उसे मनुष्य होने से रोकता है इसलिए कवि
पहली प्राथमिकता आंतरिक संघर्ष से मुक्ति की है, जिससे
मानवता का विकास हो | ‘मैं तुम लोगों
से दूर हूँ’ में मुक्तिबोध बुर्जूआ व आभिजात्य वर्ग से
अपने आप को अलग करते हुए सामान्य मनुष्य
की आंतरिक पीड़ा की अभिव्यक्ति संवेदना और अनुभूतियों को धरातल पर किए | वह अपने आप को इन लोगों से
इतना दुर मानता है कि इनके सामंजस्य का कोई प्रश्न ही नहीं उठता | कवि का मानना है कि आभिजात्य वर्ग जिसे विष समझता है उसके लिए वही अन्न
है, उसके जीने का आधार है |
अभिजात्यवर्ग जिसे निंदनीय और हेय समझता है वही कवि के एकाकी जीवन का परम साथी
है | कवि इस वर्ग को लगातार प्रहार करने का कारण है, वर्ग उसकी वेदना और सम्मान का प्रतिबिंब है | कवि
और आभिजात्य वर्ग के द्वंद के से उपजी संवेदना उसे महाकाव्य रचने कि प्रेरणा
देता है | कवि अपनी सफलता से खिन्न है क्योंकि अभी वह
दुनिया को इससे बेहतर बनाने में कोशिश में है, जो पूर्ण
नहीं हो रहा है | वह अपने अन्तःकरण से सुनता है कि मनुष्य की हृदय साफ है और दुनिया का कोई
भी काम बुरा नहीं है | फिर भी एक ओर दुनिया बाह्य
सुख-सुबिधा से भरा है तो दूसरी तरफ छोटी
मासूम बच्चियाँ भूखी और नंगी, अपने अभाव का बोझ सिर
पर लिए भटक रही है |
वैसा नहीं कि वह लज्जा को नहीं जानती फिर भी अभाव की पीड़ा में जल रही है | कवि का मानना है कि दुनिया का सबसे बड़ी पीड़ा अभावजन्य पीड़ा है जो
आंतरिक पीड़ा को कई गुणा बढ़ा देता है | यहाँ पर भी कवि का आंतरिक संघर्ष आभिजात्य
वर्ग के विरूध्द स्पष्ट परिलक्षित होती है |
6“मैं तुमलोगों से दूर हूँ
तुम्हारी प्रेरणा से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है ,मेरे
लिए अन्न है |……..
असफलता का का धूल-कचड़ा ओढ़े हूँ
इसलिए कि वह चक्करदार जीना पर मिलती है /छल
छद्म धन के
किन्तु मैं सीधी-सदी पटरी-पटरी दौड़ा हूँ / निज से अप्रसन्न हूँ ........”
‘चाँद का
मुंह टेढ़ा है’मुक्तिबोध को साफ नजर आ रहा है कि आमजन के
प्रति प्रशासन का चेहरा विद्रुप है | आमलोगों के संघर्ष और
पीड़ा का दमन पूरे शहर में कर्फ़्यू लगाकर करना चाहता है फिर भी कवि का संघर्षशील
जीव कविता के रूप में क्रांतिकारी पोस्टर लगा ही देता है |
बरगद से निकलेवाले हाथों पर प्रशासन की कड़ी नजर है | बरगद
देश का प्रतीक है | बरगद से निकालने वाला हाथ कोई और नहीं
कवि की क्रांतिकारी हाथ है जो आमजन के अधिकारों के लिए संघर्षरत है |
7“नगर
के कोनों के तिकोनों में छिपे हैं !!/ चाँद की कनखियों की कोण-गामी किरनें/ पीली-पीली रोशनी की, बिछाती
हैं /अँधेरे में, पट्टियाँ।/देखती हैं नगर की जिंदगी का टूटा-फूटा/उदास प्रसार वह।/ समीप विशालाकार/ अँधियाले लाल पर/ सूनेपन की स्याही में डूबी हुई/ चाँदनी भी
सँवलायी हुई है !!/ भीमाकार पुलों के
बहुत नीचे,
भयभीत/ मनुष्य-बस्ती के बियाबान तटों पर/ बहते हुए पथरीले नालों की धारा में/ धराशायी
चाँदनी के होंठ काले पड़ गये….”
8“ मुक्तिबोध
ने कविता का उपयोग एक हथियार के रूप में किया है और एक सैनिक जानता है कि उसे अपने हथियार का
प्रयोग कब और कहाँ करना चाहिए |
मुक्तिबोध कि कविताएं ,जीवन सत्यों कि छायाचित्र है | वे जानते हैं कि उनका समाज भौतिक स्तर पर लड़ाई हार चुकी है,उस हारे हुए समाज को जिताने के लिए ही उनकी कविताएं कवि के अनुसार वही
कला सच्ची है जो निःस्वार्थ त्याग को
अभिव्यक्ति दें |”
“चित्र
बनाते वक्त |सब स्वार्थ त्यागे जाएँ ”
उनका मानना है कि
कविता का मुख्य लक्ष्य अत्याचार के विरूध्द क्रांति की लहर उत्पन्न करना, यदि पोस्टरों पर लिखे हुए नारे यह काम करते हैं तो वे ही सच्ची कविता
है | 9“ लेखक
का अंतर्जगत,अंतर्जगत का संवेदनात्मक पुंज रचना
प्रक्रिया का प्राथमिक और निगूढ़ स्तर हैं संवेदनात्मक अंतर्जगत अर्थात जीवनानुभव
रचना प्रक्रिया के दौरान अपने विशेष संवेदनात्मक उद्देश्यों को लेकर अवतीर्ण
होते हैं, ये संवेदनात्मक उद्देश्य लेखक के अंतरव्यक्तित्व
का एक भाग है और उसके अनुभावात्मक इतिहास,जीवन स्थिति और
मनोदशाओं से संबंध रखते हैं |” संक्षेप में हम कहे तो मुक्तिबोध कि कविता का
संघर्ष आत्मपरक होते हुए भी आमजनों की संघर्ष की गाथा है जिसमें मानवीय जीवन की
कसमसाहट, मध्यकालीन सांस्कृतिक पीढ़ियों का संघर्ष, प्रशासन की विद्रुप चेहरा,शोषित-पीड़ित के प्रति
तड़पती आंखें,असंग हथियारों से करता प्रहार, आभिजात्य वर्ग के प्रति घृणा का पुट हमें देखने को मिलते हैं | साम्यवादी समाज की स्थापना के लिए उन्होंने बौद्धिक और क्रियात्मक रूप
में काम किया, किन्तु इनका साम्यवाद आगे चलकर मानवतावाद
में परिवर्तित हो जाता है ,जो कवि के आंतरिक संघर्ष को
व्यक्त करते हैं |
संदर्भ ग्रंथ
1. मुक्तिबोध रचनावली, नेमिचन्द्र जैन, प्रथम खंड ,पृ॰18,प्रथम संस्करण 1980, राजकमल प्रकाशन |
2. मुक्तिबोध विचार और
कविता – डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन व
डॉ.राजेंद्र मिश्र ,प्रथम संसकरण -1998,तक्षशिला प्रकाशन ,पृ॰21
3. मुक्तिबोध विचार और कविता –
डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन व डॉ.राजेंद्र मिश्र ,प्रथम संसकरण -1998,तक्षशिला प्रकाशन, पृ ॰ 12
4. मुक्तिबोध
रचनावली, नेमिचन्द्र जैन, द्वितीय खंड ,पृ॰ 315 ,प्रथम संस्करण 1980, राजकमल प्रकाशन |
5. वही- पृ॰ 218
6. वही- पृ॰ 219
7. वही-पृ॰ 273
8. मुक्तिबोध विचार और
कविता – डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन व
डॉ.राजेंद्र मिश्र ,प्रथम संसकरण -1998,तक्षशिला प्रकाशन ,पृ॰ 13
9. मुक्तिबोध विचार और कविता –
डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन व डॉ.राजेंद्र मिश्र ,प्रथम संसकरण -1998,तक्षशिला प्रकाशन ,पृ॰22
अजय कुमार चौधरी
सहायक प्राध्यापक,हिन्दी
पी॰ एन॰ दास कॉलेज,पलता,उत्तर 24 परगना
मोबाइल-
8981031969
|
Comments
Post a Comment