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ऊसर में खिला फूल: दलित जीवन का संघर्ष
- अजय चौधरी
- मोबाईल: 8981031969
प्रतिकूल परिस्थितियों में, जीवन की सारी उर्वर शक्तियों को निचोड़कर स्वयं को पल्लवित रखने का संघर्ष, ऊसर में फूल खिलने जैसा है। 'ऊसर' का अर्थ ही ऐसी ज़मीन है जो जीवन के लिए योग्य नहीं है, फिर भी कुछ कैक्टस जैसे उद्भिज उस ज़मीन से अपने जीवन का रस निचोड़कर खुद को जीवित रखते हैं और जीवटता का परिचय देते हैं। जालिम प्रसाद की आत्मकथा 'ऊसर में फूल' भी ऐसे ही जीवन की कहानी है, जैसा मरुभूमि में कैक्टस का होता है।
लेखक जालिम प्रसाद, ने स्वयं यह स्वीकार किया है कि उनकी आत्मकथा एक
उपन्यास न होकर लघु कथाओं का संकलन
है । यह कथन इस आत्मकथा की शैलीगत विशिष्टता को दर्शाता है,
जिसे अद्वितीय कहा जा सकता है। यह आत्मकथा छोटे-छोटे
प्रसंगों का प्रस्तुतीकरण है। आत्मकथा में जीवन के अनुभवों को छोटे-छोटे,
शीर्षक-आधारित खंडों में बाँटा गया है जैसे ‘पढ़ता है तो
क्या सिर पर चलेगा?’, ‘शिक्षण शुल्क के अभाव में नाम कट जाना’ आदि प्रसंग लेखक के
अनुभव को दर्शाता है। यह शैली पाठक को लेखक के जीवन के
प्रत्येक संघर्ष और उपलब्धि
को एक अलग और पूर्ण कहानी के रूप में ग्रहण करने का अवसर
देती है। समीक्षक नवल किशोर कुमार के अनुसार, लेखक की भाषा बेहद सरल और कथ्य बेहद सपाट
है। यह शैली दलित साहित्य की
‘भोगे गए यथार्थ’ को सीधे, बिना किसी ‘मसाले’ के, पाठकों के सामने रखती है, जिससे प्रामाणिकता का बोध होता है। वरिष्ठ साहित्यकार
अजय यतीश और युवा साहित्यकार अमित कुमार दोनों ने इस कृति को दलित साहित्य की परंपरा में एक
महत्वपूर्ण हस्तक्षेप
और स्वागत योग्य दस्तावेज
माना है। जिससे यह आत्मकथा ओमप्रकाश वाल्मीकि,
तुलसी राम, मोहनदास नैमिशराय जैसे दलित लेखकों की परंपरा में खड़ी होती
है। यह
भारतीय सामाजिक व्यवस्था के स्याह पक्ष और जाति दुर्व्यवस्था के प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में सामने आती है। वरिष्ठ साहित्यकार अजय यतीश के
अनुसार,
यह लेखक के आंतरिक और बाह्य जीवन में भोगे गए संघर्षों
और पीड़ित दलित की वेदना का दस्तावेज
है। यह सिर्फ एक
व्यक्ति की नहीं, अपितु पूरे दलित समाज की कहानी मालूम पड़ती है, जिसमें आत्मविश्वास, आत्मसम्मान और स्वाभिमान
का स्वर निहित है। समीक्षक ताराचंद कटारिया के शोधपत्र के
आधार पर,
अमित कुमार ने बताया है कि दलित आत्मकथाओं के तीन बुनियादी
बिंदु विद्रोही चेतना, इतिहास बोध और भविष्य द्रष्टा इस कृति में अपने पूरे वैचारिकी के साथ
मौजूद हैं। यह आत्मकथा
चेतनाशील होने वाले दलितों की पहली पीढ़ी की सच्ची दास्तान
है। समीक्षकों ने ज़ोर दिया है कि लेखक का संघर्ष जैसे छठी
कक्षा में दाखिले के लिए ईंट ढोना और सफलता सिर्फ एक अकेले की नहीं, वरन पूरे समाज व समुदाय
के लिए प्रेरणादायक है
।
लेखक ने अपनी आत्मकथा में
कठिन संघर्षों और खट्टे-मीठे अनुभवों का समावेश किया है, जो इसकी विषय-वस्तु को अत्यंत समृद्ध बनाते हैं। इसमें
जातिगत शोषण के कई उदाहरण हैं, जैसे’पढ़ लिखकर वकील थोड़े बन जाएगा?’
जैसे ताने है साइकिल और रजाई-गद्दा
रखने पर ईर्ष्या और धमकी तक दी जाती है। छोटी जाति
का होने के कारण क्लास मॉनीटर न बन पाना लेखक के बालपन के मन को कटुता से भर
देता है। शूद्रों के बीच भी छुआछूत का चलन जैसे मुद्दे को बेबाकी से उठाया गया है। ।
लेखक का बचपन और किशोरावस्था
शारीरिक और मानसिक शोषण
तथा अभाव में बीता था। इसमें शिक्षण शुल्क के अभाव में नाम कट जाने
और रात में पढ़ने के लिए मिट्टी के तेल की कमी
जैसे मार्मिक प्रसंग हैं दलित जीवन के घोर अभाव और मानसिक
विषाद को दिखाया है। लेखक को भूत का भय और बोर्ड परीक्षा में पास होने के लिए खीर भोजन की मनौती
जैसे अंधविश्वासों से भी जूझना पड़ा,
जहाँ उन्होंने हिम्मत और साहस से काम लिया। कुल मिलाकर, ‘ऊसर में फूल’ अपनी अद्वितीय शैली लघुकथाओं का संकलन और
दलित जीवन के यथार्थ, संघर्ष और चेतना के गहन चित्रण के कारण दलित साहित्य की परंपरा में एक
सशक्त और यादगार कृति है।
लेखक के जीवन में जातिगत भेदभाव के कई कटु अनुभव रहे है,’पढ़ता है तो क्या सिर पर चलेगा?’
जब लेखक पाँचवी कक्षा में थे और अख़बार पढ़ रहे थे,
तो एक ग्रामीण बड़े आदमी ने आस-पड़ोस के लोगों को सुनाते
हुए यह कहा था, ‘चंद्रमन का लड़का अब अखबार पढ़ने लगा है’। एक
बार पतले मेड़ पर से उतर जाने पर भी एक बड़े किसान ने उनसे पूछा था,
‘अब तुम पढ़ता है तो सिर पर चलेगा?’ ‘पढ़ लिखकर वकील थोड़े बन जाएगा?’ हल चलाते समय, खेत के मालिक खेमन ओझा ने लेखक को हतोत्साहित करते हुए कहा
था कि ‘इसके बाप-दादा यही किये हैं और यह भी यही कर रहा है और आगे भी यही करना होगा’।
‘पढ़ लिखकर वकील थोड़े बन जाएगा?’ ‘पढ़कर लाट साहब नहीं बनेगा उठाना तो गोबर है’
एक सवर्ण सहपाठी की माँ ने लेखक की माँ से कहा था कि ‘तुम्हारा
लड़का पढ़ लिखकर लाट साहब नहीं बनेगा। आखिर पढ़ लिखकर भी गोबर ही उठायेगा’। बाबा साहब ने हमें जो
धारदार हथियार के रूप में शिक्षा दिया है उसे सवर्ण समाज उसके धार को कुंद करने का
भरसक प्रयास करता है। साइकिल से ईर्ष्या जैसे प्रसंग भी उठाया गया है। जब
लेखक डिग्री कॉलेज पढ़ने के लिए स्वच्छ वस्त्र पहनकर साइकिल से जाते थे,
तो गाँव और दूसरे गाँव के लोग आपस में चर्चा करते थे कि ‘एक
छोटी जाति का लड़का साइकिल पर बैठकर हम लोगों के सामने से सर से निकल जाता है।
यह हम लोगों को अच्छा नहीं लगता’। रजाई-गद्दा से भी उनको
ईर्ष्या है। लेखक को दहेज में मिले रजाई-गद्दे को दरवाज़े पर धूप दिखाने पर,
गाँव के एक दबंग राय साहब (दलसिंगार राय) ने सूचना भिजवाई
थी कि ‘रजाई गद्दा को घर में रखे नहीं तो हम किसी दिन माचिस लगाकर जला देंगे’
दलित को शिक्षा प्राप्त करने का रास्ता भी आसान नहीं है। लेखक को शिक्षा
प्राप्त करने के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ा। ‘छठी कक्षा के लिए ढोना पड़ा ईंट’
इंटर कॉलेज में दाखिले के लिए शिक्षण शुल्क,
पंजीकरण शुल्क, किताब-कॉपी और स्कूल पोशाक की व्यवस्था न होने के कारण,
लेखक एक ईंट भट्ठे पर गए और मुंशी को जवाब दिया कि ‘मुझे
आगे पढ़ना है इसलिए मुझे ईंट ढोना है’। माध्यमिक विद्यालयों में अनुसूचित जाति के लिए छह आने
शिक्षण शुल्क लगता था। यह फीस न देने के कारण लेखक का नाम अनेक बार कट जाता था
। नाम कट जाने के बाद वह मजदूरी करके पैसा कमाते और दंड शुल्क
एक आने के साथ अपना नाम फिर से लिखवाते थे। लेखक रात का बचा हुआ
बासी खाना खाकर स्कूल जाते थे, क्योंकि माँ को सुबह जल्दी काम पर जाना होता था और घर में
ताज़ा बनाने के लिए कुछ होता भी नहीं था। रात में पढ़ने के लिए एकमात्र सहारा
ढिबरी (दीपक) था। तेल केवल खाना बनाने और खाने के समय तक ही जलता था,
पढ़ने के लिए तेल नहीं अँटता था।
इसलिए, लेखक एक पड़ोसी के यहाँ
बाज़ार करने के बदले पढ़ते, लिखते और सोते थे, जहाँ रात भर दीपक जलता था।
शिक्षक बन जाने के बाद लेखक शिक्षा और विद्यार्थियों के
विकास के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किए। एक शिक्षक के रूप में जालिम प्रसाद की
महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ और नए प्रयोग रहे हैं। यह एक शिक्षण पद्धति है जिसमें
विद्यार्थी इच्छानुसार आपस में एक दूसरे को अपना गुरु और शिष्य बनाते
हैं और अपनी शैक्षिक समस्याओं का समाधान खुद करते हैं। इस
पद्धति में कक्षा को चार भागों में बाँटकर विभिन्न प्रतियोगिताओं कविता पाठ,
कहानी, प्रश्नोत्तर आदि का आयोजन किया जाता था।
शिक्षक केवल संयोजक की भूमिका निभाते थे। लेखक ने पुस्तकालय में बुक बैंक की
स्थापना करवाई, जहाँ
मेधावी विद्यार्थी अपनी पुरानी पुस्तकें और सुंदर गृहकार्य की उत्तर पुस्तिकाएँ
जमा करते थे। इनका उपयोग उन निर्धन बच्चों के लिए किया जाता था जो पुस्तकें या गाइड नहीं
खरीद सकते थे। लेखक को 2013 में केंद्रीय विद्यालय संगठन वाराणसी संभाग द्वारा विशिष्ट
शैक्षिक उपलब्धियों के लिए ‘संभागीय प्रोत्साहन पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया था।
यह उनकी योग्यता का प्रमाण है।
जालिम प्रसाद की
आत्मकथा 'ऊसर में फूल' दलित
साहित्य की परंपरा में एक सशक्त हस्तक्षेप के रूप में सामने आती है। यह कृति दलित
साहित्य के तीन बुनियादी तत्वों ‘विद्रोही चेतना, इतिहास बोध
और भविष्य द्रष्टा’ को पूरी वैचारिकी के साथ प्रस्तुत करती है । लेखक ने स्वयं इसे
उपन्यास न होकर लघुकथाओं का संकलन माना है । यह अनूठी शैली जिसका तात्पर्य
छोटे-छोटे, शीर्षक-आधारित अनुभवों के संकलन से है। भोगे गए
यथार्थ को सीधे और सपाट भाषा में व्यक्त करती है। यह कथ्य को मसालों में लपेटे
बिना प्रस्तुत करती है, जिससे इसकी प्रामाणिकता और पठनीयता
बढ़ जाती है । आत्मकथा में लेखक के बचपन से लेकर युवावस्था तक के जातीय शोषण और
उत्पीड़न के खट्टे-मीठे अनुभवों का विस्तृत वर्णन है। आत्मकथा का केंद्रीय संदेश
डॉ. भीमराव आंबेडकर के त्रिसूत्रीय नारे ‘शिक्षित बनो, संगठित
रहो, संघर्ष करो’ पर आधारित है । लेखक ने शिक्षा के बल पर ही
गरीबी, अंधविश्वास और जाति को मात दी है। लेखक का यह जीवन ‘तुफानों में साहस और ऊसर में फूल खिलाने के समान है’ । उन्होंने बिना रिश्वत
और सिफारिश के, केवल आरक्षण के आधार पर अधिकतम योग्यता होने
के बावजूद प्राथमिक शिक्षक से सेवा शुरू कर, व्याख्याता और
कार्यवाहक उपप्राचार्य तक का सफ़र तय किया। यह कृति वर्तमान और भविष्य की पीढ़ी को
यह विश्वास दिलाती है कि ‘मंजिल के मार्ग में गरीबी, अंधविश्वास और जाति बाधक नहीं बनेगी’ और कठोर परिश्रम से जिंदगी में कुछ
भी हासिल किया जा सकता है।
'ऊसर में फूल' जातिवाद
के विद्रूप चेहरे को बेनकाब करने वाला एक ऐसा संस्मरणात्मक दस्तावेज है, जो अपनी लघुकथा-शैली में, दलित समाज की पहली पीढ़ी
के संघर्ष, स्वाभिमान और शिक्षा के माध्यम से प्राप्त हुई आर्थिक
मजबूती एवं संवैधानिक स्वर्ग की प्राप्ति की कहानी कहता है।
- पुस्तक: ऊसर में फूल
- लेखक: जालिम प्रसाद
- प्रकाशक: स्वतंत्र प्रकाशन, दिल्ली
- वर्ष:2025
- समीक्षक: अजय चौधरी
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