आवांतप और टूटते आषाढ़ के स्वप्न

( ‘इस आषाढ़ में’ पर एक विहंगम दृष्टि )

अजय चौधरी

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      विपिन बिहारी कृत ‘इस आषाढ़ में’ एक ऐसा आख्यान है जहाँ प्रकृति का 'आवांतप' (भट्ठी जैसी गर्मी) मानव जीवन के भीतर और बाहर एक समान फैला हुआ है। यह उपन्यास नहीं, बल्कि एक करुण-गायन है, जो सूखे की रेतीली जमीन पर खड़े होकर आत्मसम्मान के लिए संघर्ष करती एक दलित बस्ती का जीवंत दस्तावेज रचता है। उपन्यास की शुरुआत आषाढ़ महीने के पिछले पखवाड़े में होती है, जहाँ रात में भी लू का असर है और आसमान “फिटकिरी की तरह” कजल है कई दिनों से मुंगरी की नींद उड़ी हुई है क्योंकि उसकी कोठरी कुम्हार के आवां (भट्ठी) जैसी महसूस होती है लगातार सूखे के कारण धान की खेती नहीं हुई है और खेत में धूल उड़ रही है। गाँव में धरती का पानी पाताल छूने लगा है, घर का चापानल (हैंडपंप) सूख गया है, जिससे पूरे टोले की जान सरकारी चापानल पर निर्भर हो गई है। पानी इतना अनमोल हो गया है कि मुंगरी को नहाने के लिए भी मुश्किल से बाल्टी भर पानी मिलता है, और उसे अपनी बेटी सैलवा से बार-बार गुहार लगानी पड़ती है। अनाज खत्म होने की कगार पर है। मुंगरी अनाज की बर्बादी पर किचकिचाती (गुस्साना) है और भविष्य की चिंता से ग्रसित रहती है। वह अनाज को तौलकर देने लगी है और कहती है कि अन्न बरबाद होता है तो कलेजा फटने लगता है। इसी कारण परिवार में मुंगरी और उसकी गोतिनी पैरवा के बीच तनाव और नोक-झोंक बढ़ जाती है। सैलवा और मैनमा की शादी (ब्याह) टल गई है क्योंकि घर में अनाज और पैसा नहीं है।

आगे ऐसी और कई घटनाएं है जैसे जोखन को बैंक से लोन न चुकाने का नोटिस आता है। पता चलता है कि यह लोन उसने अपने दोस्त बिनेसर जादव के लिए डीजल पंप निकलवाने के नाम पर लिया था, जिसे बिनेसर ने खुद रख लिया और अब लोन चुकाने से मुकर रहा है। जयमंगल और महवीर जोखन का पक्ष लेते हैं और बिनेसर जादव का सामना करते हैं, जिससे बिनेसर को अंततः लोन चुकाना पड़ता है, हालाँकि वह जोखन की ज़मीन हड़प लेता है। दुधेश्वर सिंह के ट्रक पर खलासी (हेल्पर) का काम करते हुए दुली की बिजली का तार छूने से मौत हो जाती है। दुधेश्वर सिंह लाश को जलाकर मामले को दबाने की कोशिश करता है और दुली के परिवार को मामूली मुआवज़ा (5000 रुपये, गेहूँ और चावल) देकर पल्ला झाड़ लेता है, जिसे जयमंगल, महवीर और रामकेश कम मानते हैं। ताड़ी बेचने वाली फुलेसरी (कानू की पत्नी) पर जुग्गी सिंह नामक भूमिहार शारीरिक हमला करने की कोशिश करता है, जिसके जवाब में फुलेसरी पसुली (तेज धार वाला उपकरण) से उसका पेट फाड़ देती है। यह घटना दलितों के आत्मसम्मान और प्रतिकार का प्रतीक बन जाती है।

दलित छात्र रामकेश का प्रेम-प्रसंग (शर्मिला, एक कोइरी लड़की, से) नन्दकिशोर महतो को नागवार गुजरता है, जिसके कारण नन्दकिशोर रामकेश को रास्ते में पीटता है और बाद में अपने लठैतों के साथ दलित टोले पर चढ़ाई करने की कोशिश करता है। लगातार अभावों और पुरुषों की निराशा के बीच, मुंगरी अपने घर की पिछुत्ती (पीछे) की खाली पड़ी दो कट्ठा ज़मीन कोड़ने लगती है। वह अपने चाँदी के पायल और सिकड़ी बेचकर आलू का बीज खरीदती है और खेत में बुआई करती है। उसके अथक परिश्रम से उस छोटी-सी ज़मीन में दस मन से अधिक आलू उपजता है। ट्रक दुर्घटना में अपने पति दुली को खोने के बाद, जसोदवा (दुली की पत्नी) समाज की चिंता न करते हुए, अपनी ज़िंदगी आगे बढ़ाने के लिए दूसरे विवाह का फैसला करती है। फुलेसरी के जेल जाने के बाद, जयमंगल, महवीर, जोखन और रामकेश सहित पूरा टोला एकजुट होकर उसके केस के लिए चंदा इकट्ठा करता है, क्योंकि फुलेसरी ने अपनी लाज बचाई है।

सरकार पंचायत चुनाव की घोषणा करती है और पचास प्रतिशत महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान करती है, साथ ही मुखिया पद को दलितों के लिए आरक्षित किया जाता है।मुखिया पद के दलितों के लिए आरक्षित होने पर अगड़ी जाति के नेता (रामदेव सिंह, दुधेश्वर सिंह) अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए अपने ही दलित खेतिहर मजदूर (जैसे परान दुसाध) को मुखिया का चुनाव लड़ाने की योजना बनाते हैं, ताकि वे परदे के पीछे से सत्ता चला सकें। जयमंगल मुखिया का चुनाव लड़ने से इनकार कर देता है, लेकिन महवीर की राजनीतिक महत्वाकांक्षा जाग उठती है।

उपन्यास 'इस आषाढ़ में' की मूल संवेदना अभाव में दलित जीवन का अदम्य संघर्ष और आत्मसम्मान की स्थापना है। यह संवेदना मुख्यतः तीन केंद्रीय बिंदुओं के इर्द-गिर्द घूमती है जैसे अभाव से जूझता हुआ ग्रामीण जीवन, सामाजिक शोषण के विरुद्ध प्रतिकार, स्त्री का जुझारूपन और नेतृत्व। उपन्यास की सबसे प्रमुख संवेदना अकाल, गरीबी और अभावों की भयावहता है। यह अभाव केवल धान या गेहूँ तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जीवन के हर पहलू को प्रभावित करता है। आषाढ़ में भी वर्षा न होने से सूखा, पीने के पानी का संकट (चापानल सूख जाना) और मवेशियों के चारे की कमी है। यह प्राकृतिक आपदा दलित परिवारों को आर्थिक रूप से तोड़ देती है, जिससे भुखमरी की नौबत आती है और बेटी की शादी जैसे कार्य टल जाते हैं। अभाव के कारण परिवार में लगातार तनाव बना रहता है। मुंगरी को हर समय अनाज की चिंता सताती है और वह चिड़चिड़ी हो जाती है, जिससे पति-पत्नी और गोतिनियों के बीच रिश्ते में कड़वाहट घुलने लगती है। गरीबी के कारण जयमंगल और महवीर के बच्चे (मुनिंदर और पिरथी) भी स्कूल छोड़कर अपने पिता की तरह काम की तलाश में घर से भागने को मजबूर हो जाते हैं। उपन्यास दलितों के शोषण और उनके द्वारा किए गए संगठित और व्यक्तिगत प्रतिकार को भी गहरे से अभिव्यक्त करता है। बिनेसर जादव द्वारा जोखन का डीजल पंप घोटाला, जुग्गी सिंह द्वारा फुलेसरी का यौन शोषण का प्रयास, और नन्दकिशोर महतो द्वारा रामकेश को जाति के नाम पर पीटना—ये सभी घटनाएँ अगड़े और पिछड़े वर्गों द्वारा दलितों के शारीरिक, आर्थिक और आत्मसम्मान संबंधी शोषण को दर्शाती हैं। जुग्गी सिंह के हमले का जवाब फुलेसरी पसुली से देती है, जो यह दर्शाता है कि दलित अब चुपचाप अन्याय सहने को तैयार नहीं हैं। वह अपनी लाज बचाने के लिए हत्या जैसा कठोर कदम उठाती है। जयमंगल और महवीर भी जोखन के हक की लड़ाई लड़ने के लिए दबंग बिनेसर जादव का सामना करते हैं।

मुंगरी और फुलेसरी के माध्यम से उपन्यास संकटकाल में स्त्री के अदम्य जुझारूपन और नेतृत्व की भावना को स्थापित करता है, जो इस उपन्यास की विशिष्ट संवेदना है। जहाँ पुरुष (महवीर और जयमंगल) कभी-कभी निराशा में ताश खेलने या पलायन की बात करते हैं, वहीं मुंगरी अपने चाँदी के गहने बेचकर और स्वयं कुदाल चलाकर सूखी पड़ी ज़मीन से आलू उगाती है। वह अभाव से लड़ने के लिए भावनात्मक रूप से सबसे आगे रहती है और परिवार की आर्थिक गाड़ी की 'लक्ष्मी' या मुख्य चालक बन जाती है। मुंगरी और रामकेश के संघर्ष के कारण दलित टोला अपने मान-सम्मान की रक्षा के लिए एकजुट होता है, जैसा कि फुलेसरी के केस में एकजुट होकर चंदा जुटाने से स्पष्ट होता है। यह दर्शाता है कि दलित समाज शोषण के विरुद्ध अपनी ताकत को पहचान रहा है। उपन्यास की मूल संवेदना यही है कि अभाव और शोषण के बीच भी दलित जीवन हार नहीं मानता, बल्कि संघर्ष की आंच में तपकर और भी जुझारू बन जाता है, जिसका नेतृत्व अक्सर स्त्रियाँ करती हैं।

 

उपन्यास का दृश्यांकन गहरे, गाढ़े रंगों में रंगा गया है। आसमान “बिल्कुल फिटकिरी की तरह” कजल है, रात की हवाओं में भी लू का असर है । मुंगरी की कोठरी “कुम्हार के आवां” (भट्ठी) जैसी महसूस होती है, जिससे पसीना “तड़-तड़” बहता है। यह ताप केवल मौसम का नहीं, बल्कि अभावग्रस्त जीवन की अंतहीन जलन का प्रतीक है। जहाँ आषाढ़ में धान के बिए (बीज) फुज जाने चाहिए थे, वहाँ खेत में “धुरी (धूल) उड़ रही है” और धरती ऐसी तपती है “जैसे बोरसी धरी है”। जीवन की नियति पर प्रकृति की बेरुखी की यह मुहर, पाठकों को अंदर तक झकझोर देती है। रात के सन्नाटे में कुत्तों की “केंकियाहट” मनहूसियत छोड़ जाती है। यह ध्वनि आने वाले भयानक भविष्य की आशंका को मुखर करती है—जहां पानी “पंचामृत” बन गया है, और जीवन हर पल तिल-तिल कर मर रहा है।

उपन्यास के पात्र संघर्ष की गाथाएँ हैं, जिनमें अभावों के बीच भी जीवन का ताप और प्रेम का संबल शेष है। मुंगरी, वह केवल एक पात्र नहीं, बल्कि निराशा के बीच उपजाऊ शक्ति का मूर्त रूप है। जब अनाज खत्म होने की कगार पर है , वह अपने “चांदी की सिकड़ी और पायल” बेचकर सूखी ज़मीन को स्वयं कोड़ती है। उसका शरीरिक श्रम और जुझारूपन, पलायनवादी सोच (जैसे महवीर की हताशा) के विरुद्ध एक सशक्त रचनात्मक विद्रोह है। फुलेसरी, ताड़ी बेचने वाली फुलेसरी (कानू की पत्नी) जुग्गी सिंह के अहंकार और यौन शोषण के प्रयास का जवाब पसुली से देती है। यह एक ऐसी हिंसक अभिव्यक्ति है, जो सदियों के दबे-कुचले स्वाभिमान का मुखर विस्फोट बन जाती है। मुनिंदर, अभाव के कारण बच्चों का स्कूल छोड़कर दिल्ली कमाने के लिए भाग जाना, इस बात को रेखांकित करता है कि किस प्रकार प्राकृतिक आपदा और आर्थिक विषमता शोषण के चक्र को अगली पीढ़ी तक पहुँचा देती है।

उपन्यास की भाषा और संवाद में ग्रामीण मुहावरे और आंचलिकता का तीखापन है, जो जीवन के यथार्थ को सीधे चोट करता है। मुंगरी और पैरवा की नोकझोंक (“हम तो सो ही जाएंगे”, “जो होना है, होके रहेगा”) दैनिक संघर्ष का जीवंत चित्र है। मुंगरी का यह कहना कि “पसीना गारेंगे तो काहे नहीं भरेगा पेट?” उसके अडिग विश्वास को प्रकट करता है। बिनेसर जादव द्वारा जोखन को छलना और फिर दलितों को राजनीति में मोहरा बनाना (“हमलोग को वे बनिहार... टुटुआ-मरूआ ही देखना चाहते हैं”, “हम किसी के बैल नहीं बनना चाहते”) सामाजिक यथार्थ के कटु सत्य को नंगा कर देता है।

'इस आषाढ़ में' एक ऐसा कलात्मक दस्तावेज है, जहाँ प्राकृतिक आपदा और सामाजिक अन्याय दलित चेतना के उदय का कारण बनते हैं । मुंगरी की कुदाल की आवाज, फुलेसरी की पसुली की धार, और दलित टोले की एकजुटता यह प्रमाणित करती है कि जीवन यहाँ केवल दुख भोगने के लिए नहीं है, बल्कि हर कीमत पर सम्मान और आत्म-निर्भरता के साथ “जीने की जद्दोजहद” है। यह आख्यान हिंदी उपन्यास साहित्य को एक ऐसी मार्मिक और साहसी स्त्री चेतना प्रदान करता है, जो अभाव और पुरुषवादी दंभ के बीच अपना रास्ता स्वयं बनाती है।

इस उपन्यास की भाषा अत्यंत सजीव, आंचलिक (क्षेत्रीय) और यथार्थवादी है, जो ग्रामीण दलित समाज के कठोर जीवन और आंतरिक भावनाओं को प्रामाणिकता के साथ व्यक्त करती है। भाषा पर भोजपुरी और मगही क्षेत्रों की आंचलिक छाप स्पष्ट है। यह पाठ को एक विशिष्ट ग्रामीण पहचान देती है। आंचलिक शब्दावली जैसे  कजल” (काला, अँधेरा), “कचकचाती” (तंग करना, कसकना), “बझ गए” (फँस गए), “सेंगारेंगे” (संग्रह करेंगे) , “निगोड़ी,” “पगला-उगला गई है,” “फुर्र,” “रोएं खड़े हो जाते थे,” “टघरता है” (टपकना), “हलकान” (परेशान), “छरहर-फरहर” (स्वस्थ, तंदुरुस्त), “बपखौकी” (बाप को खाने वाली), “धमार करती है” (बकवास करना), “मरदाना” (पुरुष) , “बौराया” (पागल होना), “कनने” (रोना), “टठेर” (युवा, प्रौढ़), “बिकहियां” (झगड़ालू), “टऊआएंगे” (घूमना), “भकोस” (तेजी से खाना)। ग्रामीण मुहावरे ने जैसे घटना और चरित्र को सजीव बना दिया है।  ये मुहावरे चरित्रों की मनोदशा को सटीक रूप से दर्शाते हैं। घोड़ा बेचके कैसे सो रही है?” (निश्चित होकर सोना)। कलेजे पर बरछा धंसा जाती थी।”(बहुत दुख पहुँचाना)। निसहारी, ईंटा-पत्थर” (बेदर्द या पत्थर दिल)। साया-लुग्गा एक हो जाएगा।” (पसीने से कपड़े भीग जाएंगे)। क्या होगा... जब उसके दिमाग के भीतर पेबस्त हुआ।” (बात का गहरे से बैठ जाना)। का बरखा जब कृषि सुखानी।” (समय पर काम न आने वाली चीज)ऊन के मुंह में जीरा।” (ज़रूरत से बहुत कम)।

उपन्यास की भाषा मुख्य रूप से संवादात्मक है, जिससे कहानी विश्वसनीय और जीवंत लगती है। संवाद सीधे और अनगढ़ हैं, जो ग्रामीण जीवन की सच्चाई को दर्शाते हैं। शब्दों का चयन पात्रों की शिक्षा और सामाजिक पृष्ठभूमि के अनुरूप है (उदा. मुंगरी की तीखी भाषा)। भाषा पात्रों के आंतरिक द्वंद्वों और भावनाओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त करती है। मुंगरी की चिंता (“अन्न बरबाद होता है तो करेजा फटने लगता है।”) और महवीर की चिढ़ (“तेरी छाती पर?”) उनके तनाव को सामने लाती है। गरीबी और जातिगत शोषण के चित्रण में भाषा में कठोरता और कहीं-कहीं व्यंग्य आ जाता है। फुलेसरी का जुग्गी सिंह को 'पसुलिया' दिखाना और उसका मुंहफट जवाब, शोषित वर्ग के प्रतिरोध को तीखी भाषा में व्यक्त करता है। भाषा ने विचारों को गहनता से प्रस्तुत किया है। सूखे की तुलना में भावुक कथन आते हैं, जैसे “धरती तपती है ऐसी कि जैसे बोरसी धरी है” या “पानी न हुआ पंचामृत हो गया”। पात्र जीवन की कठोरता पर दार्शनिक टिप्पणियाँ भी करते हैं, जो उनके अनुभवों का सार है, जैसे मानुष के वश में है ही क्या, कठपुतली जैसे नचावे दैवा, हमलोग नाचते हैं दैवा के इशारे पर?” (पैरवा)। आदमी के लिए जीवन-मृत्यु दोनों ही दुखकारी है।” (जयमंगल)। बेटा और लोटा लुढ़कने से ही चमकते हैं।” (मंगल)। चिंता से चतुराई घटती है।” (महवीर)। इसकी भाषा हिंदी साहित्य की आंचलिक परंपरा को समृद्ध करती है, जहाँ ग्रामीण और लोक-जीवन के संघर्ष, संबंध और चेतना को उनकी स्वाभाविक और असंगठित भाषा-शैली में व्यक्त किया गया है। यह भाषा पाठक को सीधे ग्रामीण धरातल से जोड़ती है और चरित्रों के दुःख, क्रोध तथा अदम्य साहस को उनकी अपनी आवाज़ में सुनवाती है।

उपन्यास का शीर्षक ही इसकी विषय-वस्तु को स्पष्ट करता है - “इस आषाढ़ में” (आषाढ़ वर्षा ऋतु का महीना है)। उपन्यास का अधिकांश भाग सूखे, अत्यधिक गर्मी, पानी की कमी और खेती-बाड़ी के चौपट होने के कारण आई विकट परिस्थितियों का चित्रण करता है। यह अभाव न केवल कृषि को प्रभावित करता है, बल्कि मानव जीवन, सामाजिक संबंधों और मानसिक स्थिति को भी जकड़ लेता है। कथानक का मुख्य तनाव आषाढ़ के बीतने पर भी वर्षा न होने और परिणामतः भुखमरी तथा दैनिक जीवन के संकटों से उपजा है। पेयजल संकट (चापानल का पानी छोड़ देना) और मवेशियों के चारे का अभाव विकट समस्याएँ हैं।

 

यह उपन्यास दलित समाज, विशेष रूप से मुंगरी और उसके परिवार (महवीर, जयमंगल, पैरवा, मंगल, सुरती) के जीवन, उनके कठोर परिश्रम और सम्मान के लिए किए गए संघर्ष को उजागर करता है। सामाजिक असमानता, जातिगत भेदभाव (जैसे बासी भात मांगने की परंपरा), और अगड़े-पिछड़े वर्ग द्वारा उनके शोषण का मार्मिक चित्रण है (जैसे जोखन को धोखा देना)। उपन्यास में महिला पात्रों, विशेषकर मुंगरी और फुलेसरी, का सशक्त चरित्र-चित्रण है। उपन्यास की कथा-शैली अत्यंत सजीव और बोलचाल की भाषा (विशेषतः ग्रामीण और आंचलिक शब्दों) का प्रयोग करती है, जिससे पात्रों और परिवेश की प्रामाणिकता बढ़ जाती है। संवाद छोटे, चुस्त और यथार्थवादी हैं। मुंगरी और महवीर या मुंगरी और पैरवा के बीच के संवाद (जैसे राशन कम पड़ने पर झगड़ा) में तनाव, चिंता और आपसी नोकझोंक स्पष्ट झलकती है। उपन्यास में मुख्य कथा के साथ-साथ कई उपकथाएं चलती हैं, जो सामाजिक अन्याय और विषमता के कई आयामों को सामने लाती हैं। मुंगरी और पैरवा के परिवार का आर्थिक संघर्ष और खेती के लिए परिश्रम। दलित छात्र रामकेश का जातिगत भेदभाव और प्रेम-प्रसंग (शर्मिला के साथ) में हिंसा का सामना करना। फुलेसरी द्वारा जुग्गी सिंह की हत्या और उसके बाद समाज की प्रतिक्रिया। बैंक लोन और डीजल पंप के नाम पर जोखन का शोषण। दुली की मृत्यु और दुधेश्वर सिंह द्वारा मुआवजा न देना। उपन्यास में आरक्षण, भ्रष्टाचार (इंदिरा आवास), सरकारी योजनाओं में हेरफेर और राजनीति में जातिवाद पर भी मुखर टिप्पणियाँ हैं, जो इसे समकालीन भारतीय समाज का आईना बनाती हैं।

इस आषाढ़ में” विपिन बिहारी का एक सशक्त और यथार्थवादी उपन्यास है, जो ग्रामीण भारत, विशेषकर दलित समाज के जीवन के कठोर सत्य को सामने लाता है। यह अभावग्रस्त जीवन, जातिगत शोषण और सामाजिक-आर्थिक विषमताओं के बीच मुंगरी और फुलेसरी जैसी महिलाओं के अदम्य साहस और जुझारूपन का चित्रण करता है। उपन्यास की भाषा और संवाद इसे एक प्रामाणिक आंचलिक रंगत प्रदान करते हैं। यह कृति ग्रामीण भारत के उस वर्ग के 'जीने के जुगाड़' को दर्शाती है, जिसे हर दिन अपनी औकात और सम्मान के लिए संघर्ष करना पड़ता है। यह उपन्यास ग्रामीण जीवन की समस्याओं, विशेष रूप से सूखे और अभावों के कारण उत्पन्न हुई कठिनाइयों, सामाजिक विषमताओं और दलित समाज के संघर्ष को केंद्र में रखकर लिखा गया है।

पुस्तक: इस आषाढ़ में

लेखक: विपिन बिहारी

प्रकाशक: कदम प्रकाशन, दिल्ली

प्रथम संस्करण: 2018

समीक्षा: अजय चौधरी 

 

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