'सुनो दलित' में आंबेडकरवाद: सामाजिक न्याय, प्रतिरोध और मानवता के विकास की प्रतिबद्धता

  • अजय चौधरी
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            डॉ. खन्नाप्रसाद अमीन का कविता संग्रह 'सुनो दलित' समकालीन दलित साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखता है। इस संग्रह में कुल 53 कविताएँ हैं। यह संग्रह डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर के विचारों से गहराई से प्रेरित है, जो दलित समाज में आत्मसम्मान, आत्मचेतना और संघर्ष की नई भूमि तैयार करता है। संग्रह दलित समाज में आत्मसम्मान, आत्मचेतना और संघर्ष की नई भूमि तैयार करता है। आलोचक डॉ. दत्तात्रय मुरुमकर के अनुसार, डॉ. खन्नाप्रसाद अमीन समकालीन युवा दलित कवियों में विशिष्ट हैं क्योंकि उनकी कविताओं में आंबेडकरवाद बहुत ही गहराई के रूप में प्राप्त होता है। कवि बाबासाहब के मूल विचार 'शिक्षित बनो, संगठित बनो और संघर्ष करो' के साथ-साथ उनके विचारों का प्रकाश पूरे दलित समाज में फैलाते हैं। यह कविताएँ दलितों को शिक्षा से आगे बढ़ने और एकजुट होने का आह्वान करती हैं। संग्रह की एक कविता 'भीम की कसम' में भी भीम के संदेश को शब्दबद्ध करने और समाज को जागरूक करने का आह्वान है। कविताओं में वर्ण व्यवस्था की जकड़न और उससे मुक्त होने की प्रक्रिया का चित्रण है। कवि इस सत्य को उजागर करते हैं कि 'जाति कभी नहीं जाती'। वे जातिदंश की पीड़ा को व्यक्त करते हुए भी जाति विहीन समाज का निर्माण अपना लक्ष्य बताते हैं। 'तुमने कहा' कविता के संदर्भ में यह स्पष्ट होता है कि नई पीढ़ी के दलित कवि अब अपनी पहचान 'गांधी के हरिजन' के रूप में नहीं, बल्कि 'भीमराव के दलित' के रूप में देखते हैं, जो एक वैचारिक संघर्ष और आत्म-पहचान का भाव है। कवि आधुनिकता के दिखावे की पोल खोलते हैं, जहाँ लोग वेशभूषा, खान-पान में मॉर्डन बनने का दिखावा करते हैं, लेकिन अब भी विवाह के लिए अपनी ही जाति के वर-वधू खोजते हैं। कवि जोर देते हैं कि सच्ची आधुनिकता मन में पनप रहे जातिवाद के बीज को समाप्त करने से आएगी। इनके कविताओं में विद्रोह और आक्रोश का प्रखर स्वर दिखाई देता है। कवि का लेखन अमानवीयता के खिलाफ सशक्त प्रतिरोध और मानवीयता का आगाज है। पहली कविता 'सुनो दलित' मलखान सिंह की 'सुनो ब्राह्मण' की तर्ज़ पर दलितों को धिक्कारती भी है और आत्मालोचना का अवसर भी देती है। एक तरह से यह कविता संग्रह अत्याचारों का इतिहास बयान करता है। कविता 'हे ईश्वर' में गोलाणा हत्याकांड (1986), थानगढ हत्याकांड (2012), ऊना कांड (2016), हाथरस गैंगरेप कांड (2020) और रोहित वेमुला की आत्महत्या (जिसे हत्या कहा गया है) जैसी त्रासद घटनाओं का भी  जिक्र किया गया है। डॉ. अम्बेडकर के कथन कि 'शिक्षा सबसे बड़ी शक्ति है और कलम सबसे बड़ा हथियार' से प्रेरित होकर, कवि ने कलम को अपना हथियार बनाया है। कवि बताते हैं कि भीम ने संविधान से बहुजनों के लिए सदियों से बंद हुए रास्ते खोल दिए हैं और अब किसी गुरु की नहीं, बल्कि 'गूगल गुरु' के पास से असीमित ज्ञान का भंडार प्राप्त करने की आवश्यकता है।

            संग्रह की पहली कविता 'सुनो दलित' में कवि दलितों को आत्म-आलोचना का अवसर देते हैं और उन्हें सदियों पुराने पुश्तैनी धंधों को छोड़कर शिक्षा ग्रहण करने के लिए धिक्कारते हुए आह्वान करते हैं।

"सुनो दलित,

तुम्हें धिक्कार है स्वतंत्रता के पचहत्तर सालों के बाद भी,

तुम नहीं हो पाये स्वतंत्र.....

तुम्हारे सामने गूगल गुरु उनके पास से तुम,

प्राप्त कर लो असीमित ज्ञान का भंडार ॥"

कविता 'जाति कभी जाती नहीं' में कवि जाति व्यवस्था की जड़ता को अत्यंत मार्मिक ढंग से उजागर करते हुए कहते हैं कि यह जीवित व्यक्ति का ही नहीं, बल्कि मृत्यु के बाद भी पीछा नहीं छोड़ती है।

"जाति कभी जाती नहीं

वह अमरत्व लेकर आयी है

आदमी के मौत के बाद भी, मरघट तक आती है ...

कविता 'आधुनिकता की पोल' में कवि ब्राह्मणवादी समाज के दिखावटी आचरण पर सवाल उठाते हैं, जो पोशाक बदलने के बाद भी जातिवाद को नहीं छोड़ पाया है।

"पोशाक, खाने-पीने और रहन-सहन में,

दिखावा बढ़ रहा है दिन-प्रतिदिन, भारतीय हिन्दू समाज में

हम बन गए है मॉर्डन !!

कविता 'सच्चे पुजारी' में कवि कोरोना संकट के दौरान धर्म और पुजारियों के पलायन तथा डॉक्टर, नर्स, पुलिस और सफाई कर्मियों की निस्वार्थ सेवा को उजागर करते हैं

"कोरोना के कहर में, मानवता महान है

ईश्वर लाचार होकर, युद्ध के मैदान को, छोड़कर भाग गए .....

अब नहीं चलेगा धर्म मंत्र, केवल चलेगी, मानवता की मुहर"

कविता 'भीम की कसम' में कवि अन्य दलित कवियों को सामाजिक चेतना जागृत करने वाली कविताएँ लिखने के लिए प्रेरित करते हैं

"भीम का एक ही था सपना, जातिविहीन देश हो अपना"

            डॉ. खन्नाप्रसाद अमीन की कविताओं में दलित चेतना का स्वर आंबेडकरवाद पर आधारित है, जो मात्र एक वैचारिक दर्शन नहीं, बल्कि मानवता के विकास, समतावादी समाज के निर्माण और सामाजिक बुराइयों के तीव्र प्रतिरोध की एक प्रतिबद्धता है। उनकी कविताएँ देश और समाज को आईना दिखाते हुए नए युग के निर्माण के लिए संकल्पित हैं। कवि इस विचारधारा को केवल काव्य विषय नहीं बनाते, बल्कि इसे दलितों के संघर्ष और आत्म-पहचान का आधार मानते हैं। कवि अम्बेडकर के इस सूत्र को अपनाते हैं कि "शिक्षा सबसे बड़ी शक्ति है और कलम सबसे बड़ा हथियार"। इसलिए, वह दलितों को झाड़ू की जंजीर फेंककर कलम पकड़ने और शिक्षा ग्रहण करने का आह्वान करते हैं, क्योंकि कलम ही जीवन बदल सकती है। आंबेडकरवाद के प्रभाव में, दलित अब अपनी पहचान 'गांधी के हरिजन' के रूप में नहीं, बल्कि “भीमराव के दलित” के रूप में स्थापित करते हैं। यह चेतना उन्हें ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरुद्ध वैचारिक संघर्ष और संग्राम की ओर ले जाती है। कवि की रचना-प्रक्रिया वर्ण-व्यवस्था की जकड़न से आरंभ होकर, उससे मुक्त होने की प्रक्रिया तक पहुँचती है, जिसका अंतिम लक्ष्य मानवता का विकास और समतावादी समाज का निर्माण है। इनका अंतिम लक्ष्य एक जातिविहीन समाज का निर्माण है। वे जातिदंश की पीड़ा को अभिव्यक्त करते हैं, किंतु उनका दृष्टिकोण केवल पीड़ा तक सीमित न रहकर, विषमतामूलक व्यवस्था को समाप्त करके मनुष्य को हर प्रकार के बंधनों से मुक्त करने की चाह रखता है। उनकी कविताओं में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे मानवीय मूल्यों के लिए निरंतर संघर्ष दिखाई देता है। कवि आग्रह करते हैं कि "मानव मात्र एक समान" होना ही आधुनिकता की सच्ची परिभाषा है। कविता 'सच्चे पुजारी' में वह धर्म और ईश्वर की लाचारी दिखाते हुए, मानवता की सेवा में लगे डॉक्टर, नर्स और सफाईकर्मी को ही सच्चे पुजारी मानते हैं। उनके लिए अब 'धर्म मंत्र' नहीं, बल्कि "मानवता की मुहर" चलेगी। कविताओं में दलित जीवन के यथार्थ को अभिव्यक्ति मिलती है, जो सामाजिक विषमता की दरारों को भरने और अमानवीयता के खिलाफ एक सशक्त प्रतिरोध का कार्य करती है। कवि इस सत्य को उजागर करते हैं कि 'जाति कभी जाती नहीं' यह जहरीले विष की तरह है जो समाज से कभी नहीं उतरता और इंसान को घृणा और नफरत सिखाता है।  कवि ब्राह्मणवादी व्यवस्था द्वारा रचित 'झूठ से सीधा साक्षात्कार' करते हुए, जन्म के अप्राकृतिक और अवैज्ञानिक सिद्धांतों पर सवाल उठाते हैं। वह भारतीय संस्कृति के 'वसुधैव कुटुंबकम्' और 'सर्व भवन्तु सुखेन' जैसे उदात्त दावों पर संदेह प्रकट करते हैं, क्योंकि जिस संस्कृति में वर्ण-अवर्ण का भेद है, वह मानव कल्याणकारी नहीं हो सकती। साथ ही उनकी कविताएँ इतिहास में हुए दलित अत्याचारों का बयान करती हैं। 'हे ईश्वर' जैसी कविताओं में गोलाणा, थानगढ, ऊना कांड और रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या जैसे त्रासद जुल्मों का स्पष्ट उल्लेख है । यह प्रतिरोध का एक सशक्त रूप है। इनकी कविताएँ केवल अतीत की पीड़ा या वर्तमान के आक्रोश तक सीमित नहीं हैं; वे एक ऐसे भविष्य के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध हैं जहाँ दलित समाज नई दुनिया की ओर बढ़े। कवि जोर देते हैं कि डॉ. भीमराव ने संविधान लिखकर "वंचितों के लिए सभी द्वार खोलकर, मानवता का नया बीज बो दिया"। उनकी लड़ाई 'यूक्रेन और रशिया' की तरह युद्ध नहीं है, बल्कि शांति से समानता और संवैधानिक हक की माँग है, ताकि देश में स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व का झंडा फहरता रहे। कवि कविता को मात्र कलात्मक अभिव्यक्ति नहीं मानते, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का लक्ष्य और साधन मानते हैं। वे दृढ़ विश्वास रखते हैं कि उनकी कविताएँ समाज में नई क्रांति और चेतना जागृत करेंगी। कवि का अंतिम आह्वान है कि भीम के सपनों को कोरे कागज पर नहीं, बल्कि नवयुवकों के हृदय पर अंकित करना है, जिससे वे उठकर दौड़ना शुरू कर दें और मनुवादियों को भस्मीभूत कर दें।

            डॉ. खन्नाप्रसाद अमीन की कविताएँ आंबेडकरवादी चेतना का मुखर प्रतीक हैं, जो दलितों को यथार्थ का आईना दिखाती हैं और उन्हें एक स्वाभिमानी, शिक्षित तथा समता-आधारित भविष्य की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं। कविताओं में कला पक्ष की चिंता नहीं है, बल्कि भाव पक्ष को सशक्त करने का आह्वान है। कवि की अभिव्यक्ति असरकारक है और सोच विज्ञानपरक है। कविताओं में प्रश्न, तर्क, जिज्ञासा और आक्रोश के साथ-साथ आशा, विश्वास, समता, बंधुत्व और सामाजिक न्याय पाने की अभिलाषा भी है। उनकी कविताओं में अनुभूति की सच्चाई है, कल्पना को स्थान नहीं है। इस प्रकार 'सुनो दलित' दलित चेतना का सशक्त दस्तावेज है, जो केवल पीड़ा का बयान नहीं करता, बल्कि सामाजिक परिवर्तन, आत्मसम्मान और ज्ञान के माध्यम से मुक्ति का मार्ग भी दिखाता है। यह संग्रह दलितों को सजग करता है और वर्चस्ववादी अभिजनों के पाखंड का खंडन भी करता है।

 

 

  • पुस्तक : सुनो दलित
  • लेखक: डॉ. खन्नाप्रसाद अमीन
  • प्रकाशक: श्री नटराज प्रकाशन)
  • प्रथम संस्करण: 2023

 

 

 

 

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