रस मीमांसा से अम्बेडकरवादी दर्शन तक- अजय चौधरी

 


रस मीमांसा से अम्बेडकरवादी दर्शन तक

अजय चौधरी 
8981031969 

हिंदी साहित्य की आलोचना परंपरा दो प्रमुख वैचारिक धाराओं में विभाजित है: सवर्ण आलोचकों द्वारा स्थापित मुख्यधारा और दलित आलोचकों द्वारा पोषित विद्रोही धारा। दोनों धाराओं के आलोचक साहित्य को समझने, व्याख्या करने और मूल्यांकन करने के लिए अलग-अलग दार्शनिक आधार और मापदंडों का उपयोग करते हैं। जहाँ मुख्यधारा के आलोचक कला, रस और सार्वभौमिक मानवतावाद पर बल देते हैं, वहीं दलित आलोचक सामाजिक न्याय, स्वानुभूति और अम्बेडकरवादी दर्शन को केंद्र में रखते हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी आलोचना को व्यवस्थित आधार दिया था। आधुनिक हिंदी आलोचना में, किसी कृति का मूल्यांकन केवल काव्यशास्त्रीय नियमों पर नहीं, बल्कि उसके सामाजिक, दार्शनिक और कलात्मक मूल्यों पर किया जाता है। किसी भी साहित्यिक कृति कविता, कहानी, उपन्यास आदि की समीक्षा करते समय आलोचक कला पक्ष और भाव पक्ष दोनों कसौटियों का उपयोग करते है। कला पक्ष, यह मापदंड कृति की संरचना और शिल्प पर केंद्रित है। इसमें भाषा की स्पष्टता, सहजता, प्रवाह और विषय के अनुकूलता के विषय पर विशद चर्चा होती है, जैसे क्या लेखक ने शब्दावली तत्सम, तद्भव, देशज का सटीक प्रयोग किया है? कृति में रस जैसे शृंगार, करुण, वीर की सही अभिव्यक्ति हुई है या नहीं? क्या यह पाठक को गहन भावुकता से प्रभावित करती है अर्थात इसमें प्रेषणीयता है? इसमें अलंकारों का प्रयोग अनावश्यक तो नहीं है? बिम्ब और प्रतीक कितने सशक्त और मौलिक हैं? कहानी का कथानक कितना सुगठित है, पात्रों का विकास कितना स्वाभाविक है और संवाद कितने प्रभावशाली हैं। भाव पक्ष,यह मापदंड कृति के आंतरिक विचार और उद्देश्य पर केंद्रित है। कृति का विषय कितना नया है और आज के समाज के लिए कितना महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है। लेखक का जीवन और समाज के प्रति क्या दृष्टिकोण है? क्या कृति में कोई गहन दार्शनिक या नैतिक संदेश निहित है? क्या कृति जीवन के सत्य को उजागर करती है और उसमें मंगलकारी और नैतिक मूल्य का सामाजिक दायित्व बोध हैं? क्या कृति समाज की समस्याओं, वर्ग संघर्ष या जनता के जीवन को प्रतिबिंबित करती है? मार्क्सवादी आलोचना इसी कसौटी पर बल देती है। कृति में प्रेम, करुणा, न्याय जैसे सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों का चित्रण किस प्रकार किया गया है। ऐतिहासिक संदर्भों में कृति की अर्थवत्ता और तत्कालीन परिस्थितियों को दर्शाने की क्षमता है या नहीं?  हिंदी साहित्य की आलोचना कृति के आंतरिक सौंदर्य कला पक्ष और उसके बाह्य प्रभाव या संदेश भाव पक्ष और सामाजिक उपयोगिता के संतुलन पर आधारित है।

वहीं, दलित साहित्य की समीक्षा के मुख्य मापदंड और कसौटियाँ  हैं, जो मुख्य रूप से डॉ. बी.आर. अम्बेडकर के दर्शन और दलित चेतना पर आधारित हैं। इस साहित्य समीक्षा के प्रमुख मापदंड  स्वानुभूति की प्रामाणिकता है। दलित साहित्य में दलित जीवन की पीड़ा, अपमान और संघर्ष का चित्रण करने के लिए स्वानुभूति यानि स्वयं भोगे हुए अनुभव को सबसे ज़रूरी माना जाता है। आलोचक यह देखते हैं कि क्या लेखक ने दलित समाज के यथार्थ को गहराई और प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किया है, या यह केवल सहानुभूति पर आधारित काल्पनिक चित्रण है। इस साहित्य दलित चेतना एवं विद्रोही स्वर की प्रमुखता होती है। कृति में सामाजिक अन्याय, शोषण और जातिगत व्यवस्था के विरुद्ध कितना आक्रोश और विद्रोह है। साहित्य यथास्थितिवाद को नकारकर सामाजिक परिवर्तन के लिए कितना प्रेरित करता है। यह चेतना मुख्य रूप से समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के अम्बेडकरवादी दर्शन पर आधारित होनी चाहिए। दलित साहित्य 'कला कला के लिए' के सिद्धांत को नकारता है और 'कला जीवन के लिए' के सिद्धांत पर आधारित है। इस साहित्य की समीक्षा का मापदंड यह है कि कृति का उद्देश्य मनोरंजन या सौंदर्य-सृजन करना नहीं है, दलित समाज की मुक्ति और उन्हें अधिकारों के प्रति जागरूक करना होना चाहिए। यह साहित्य मनुष्य को महान मानता है, आनंद को नहीं। सौंदर्यबोध में बदलाव की प्रक्रिया की नई दृष्टि इसकी समीक्षा का केंद्र बिन्दु है। दलित आलोचना परंपरागत 'रस', 'अलंकार' और 'रूप-लावण्य' जैसे सौंदर्यशास्त्रीय मापदंडों को अस्वीकार करती है। इस साहित्य का सौंदर्य दलितों की पीड़ा, संघर्ष, मानवीय अस्मिता और सामाजिक न्याय की खोज में निहित है। ओमप्रकाश वाल्मीकि के अनुसार, दलित साहित्य का शब्द-सौंदर्य प्रहार में है, सम्मोहन में नहीं। यह साहित्य धार्मिक रूढ़ियों, अंधविश्वासों और मिथकों का जोरदार खंडन करता है, क्योंकि ये सदियों से शोषण के आधार रहे हैं। सबसे महातपूर्ण बात इस साहित्य की समीक्षा करते समय समीक्षक कृति में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तर्क को कितना महत्व दिया गया है इस पर सूक्ष्म दृष्टि होती है। दलित साहित्य की समीक्षा करते समय, वैचारिक ईमानदारी और सामाजिक सार्थकता को कलात्मक शिल्प से अधिक महत्व दिया जाता है।

हिंदी साहित्य के क्षेत्र में, किसी भी कृति का मूल्यांकन उसके अंतर्निहित मूल्यों और समाज पर उसके प्रभाव को समझने के लिए अत्यंत आवश्यक है। बीसवीं शताब्दी में आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा व्यवस्थित आधार दिए जाने के बाद, हिंदी आलोचना ने कई वैचारिक मोड़ लिए हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण वैचारिक टकराव मुख्यधारा की आलोचना सवर्ण आलोचकों द्वारा स्थापित और दलित आलोचना के बीच देखा जाता है। यह अंतर केवल आलोचकों के व्यक्तिगत मतभेद का नहीं है, बल्कि जीवन-दृष्टि, सौंदर्यबोध और सामाजिक प्रतिबद्धता के मौलिक अंतर को दर्शाता है।

मुख्यधारा के आलोचक अपने मूल्यांकन के लिए मुख्य रूप से भारतीय काव्यशास्त्र  के रस, ध्वनि, अलंकार तथा पाश्चात्य सिद्धांतों जैसे रूपवाद, प्रगतिवाद, मनोविश्लेषणवाद का सहारा लेते हैं। इनका दृष्टिकोण प्रायः मानवतावाद पर केंद्रित होता है, जो अक्सर जाति-निरपेक्ष होने का दावा करता है। उनका मानना है कि साहित्य को सार्वभौमिक मानवीय भावनाओं और अनुभवों की अभिव्यक्ति करनी चाहिए।

दलित आलोचना का आधारभूत दर्शन सीधे तौर पर बुद्ध, डॉ. बी.आर. अम्बेडकर, जईटीबा फुले, पेरियार आदि  के सिद्धांतों पर टिका है, जो समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर बल देते हैं। इसके अतिरिक्त, यह आलोचना मार्क्सवादी दृष्टिकोण को भी समाहित करती है, लेकिन इसे जाति-केंद्रित संघर्ष में रूपांतरित करती है। दलित आलोचक मानते हैं कि भारत में वर्ग-संघर्ष से पहले जाति-संघर्ष महत्वपूर्ण है और इसलिए उनकी आलोचना का दृष्टिकोण पक्षधरता से युक्त होता है।

मुख्यधारा की आलोचना'कला पक्ष' और 'भाव पक्ष' के संतुलन पर केंद्रित होता है। शिल्प की उत्कृष्टता, संरचना की कसावट, भाषा का सौंदर्य और बिम्बों की नवीनता पर बल देता है। सत्य, शिव और सौंदर्य का संतुलन तथा पाठक तक भावों को पहुँचाने की क्षमता प्रमुख होती है।

दलित आलोचना के लिए कलात्मक शिल्प गौण है। यहाँ सर्वोच्च मापदंड वैचारिक ईमानदारी और सामाजिक सार्थकता है। आलोचक कृति को इस कसौटी पर कसते हैं कि लेखक ने दलित जीवन की स्वानुभूति को कितनी प्रामाणिकता से व्यक्त किया है और उस अभिव्यक्ति में विद्रोही चेतना कितनी प्रबल है। यदि रचना में दलित जीवन की पीड़ा का प्रामाणिक चित्रण नहीं है, तो उत्तम शिल्प भी उसे श्रेष्ठ नहीं बना सकता।

मुख्यधारा के आलोचक कृति से मानवीय मनोभावों के गहन चित्रण, व्यक्तिगत अनुभवों के सार्वभौमीकरण या राष्ट्रीय/सांस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति की अपेक्षा करते हैं। उनके लिए साहित्यिक उत्कृष्टता का अर्थ है, किसी भी विषय का गहरा, बहुआयामी और कलात्मक निरूपण।

दलित साहित्य से अपेक्षाएँ सीधे तौर पर सामाजिक हस्तक्षेप से जुड़ी हैं। कृति का लक्ष्य सामाजिक परिवर्तन लाना, जातिवाद का खंडन करना और दलित अस्मिता की गौरवपूर्ण स्थापना करना होना चाहिए। यह साहित्य मनोरंजन या तटस्थ चित्रण नहीं है, बल्कि उत्पीड़न के यथार्थ को उजागर करने वाला एक सक्रिय उपकरण है। दलित साहित्य 'मनुष्य को महान मानता है, आनंद को नहीं'

यह आलोचना पारंपरिक सौंदर्यशास्त्र (रस-सिद्धांत) और उत्कृष्टता (Sublimity) पर निर्भर करती है। प्रेम, करुणा, प्रकृति सौंदर्य और उदात्त भावों का चित्रण यहाँ सौंदर्य का आधार है।

दलित आलोचना परंपरागत 'रस', 'अलंकार', और 'रूप-लावण्य' को सवर्ण वर्चस्व का उत्पाद मानकर अस्वीकार करती है। उनके लिए सौंदर्यबोध में मौलिक बदलाव आवश्यक है। इस साहित्य का सौंदर्य दलितों की पीड़ा, संघर्ष, मानवीय अस्मिता की रक्षा और सामाजिक न्याय की खोज में निहित है। ओमप्रकाश वाल्मीकि के अनुसार, दलित साहित्य का 'शब्द-सौंदर्य प्रहार में है, सम्मोहन में नहीं'—यानी, उसकी आक्रामक भाषा ही उसका सौंदर्य है।

मुख्यधारा के आलोचक भले ही वे प्रगतिशील हों सामान्यतः सामाजिक यथार्थ का समीक्षात्मक चित्रण करने या नैतिक संदेश देने को अपनी भूमिका मानते हैं। उनका दृष्टिकोण यथासंभव वस्तुनिष्ठता और तटस्थता बनाए रखने का प्रयास करता है, ताकि उनकी समीक्षा सार्वभौमिक प्रतीत हो।

दलित आलोचक किसी भी तरह की तटस्थता को शोषक व्यवस्था का मौन समर्थन मानते हैं। उनका दृष्टिकोण पक्षधरता और प्रतिबद्धता से भरा होता है। उनकी सामाजिक भूमिका शोषक व्यवस्था के विरुद्ध सीधा हस्तक्षेप करना, वैचारिक लड़ाई लड़ना और दलितों को उनके अधिकारों के लिए सक्रिय रूप से जागरूक करना है। दलित साहित्य की समीक्षा करते समय, समीक्षक कृति में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तर्क को कितना महत्व दिया गया है, इस पर सूक्ष्म दृष्टि रखते हैं।

मुख्यधारा के आलोचकों ने हिंदी आलोचना को सैद्धांतिक गहराई और संरचनात्मक आधार प्रदान किया। इनके योगदान को तीन प्रमुख चरणों में देखा जा सकता है: शास्त्रीय, प्रगतिशील और नई समीक्षा।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल साहित्य समीक्षा के लिए शास्त्रीय और रसवादी आधार को प्रमुख माना है। शुक्ल जी को हिंदी आलोचना का मानक स्थापित करने वाला माना जाता है। उनका दृष्टिकोण लोकमंगल पर आधारित है, जहाँ वे रस मीमांसा को सामाजिक उपयोगिता से जोड़ते हैं। उन्होंने किसी भी कृति की कसौटी हृदय की सामाजिकता और भावों की शुद्धता को माना। उनकी समीक्षाएँ विशेषकर तुलसी और सूर पर आलोचना को वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित आधार प्रदान करती हैं।

द्विवेदी जी ने शुक्ल की शास्त्रीयता से हटकर साहित्य को सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भ में देखा। उन्होंने साहित्य की अनासक्ति और साहित्यकार की स्वाधीनता पर बल दिया। उनका मानवतावादी दृष्टिकोण दलित-शोषित समाज के प्रति सहानुभूति रखता है, लेकिन संघर्ष को कलात्मक उन्नयन की दृष्टि से देखता है, न कि सीधे राजनीतिक हथियार के रूप में।

रामविलास शर्मा मार्क्सवादी और प्रगतिशील आलोचना को सवउकर करते हैं। शर्मा जी ने आलोचना को मार्क्सवादी ऐतिहासिक भौतिकवाद से जोड़ा। उनके लिए साहित्य का मूल्य उसकी सामूहिकता और सामाजिक यथार्थ को दर्शाने की क्षमता में निहित है। उन्होंने साहित्य को वर्ग-संघर्ष के आईने में देखा, जहाँ जनपक्षधरता ही आलोचना का केंद्रीय मापदंड बन गई।

डॉ. नगेंद्र ने हिंदी आलोचना में रसवादी सिद्धांतों को पुनर्जीवित किया और उसे मनोवैज्ञानिक आयामों से जोड़ा। वे शास्त्रीयता और सैद्धांतिकरण पर बल देते हैं, जहाँ कविता का मूल्यांकन उसके भावुक सौंदर्य और कलात्मक विन्यास के आधार पर होता है। उनका जोर शिल्प की सूक्ष्मता और काव्यशास्त्र के नियमों पर अधिक रहा।

नामवर सिंह ने प्रगतिशील आलोचना को आधुनिक संदर्भ में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने साहित्य के इतिहास और सामाजिकता पर जोर दिया, विशेषकर नए साहित्यिक रूपों जैसे 'कहानी नई कहानी' और 'कविता के नए प्रतिमान' की खोज में। वे साहित्य की विधाओं और शैलियों के माध्यम से सामाजिक चेतना को विश्लेषित करते हैं।

गजानन माधव मुक्तिबोध ने आलोचना को अस्तित्ववादी और मनोवैज्ञानिक गहराई दी। उन्होंने रचना के नए शिल्प, विशेषकर फैंटेसी और आत्मसंघर्ष के माध्यम से सामाजिक यथार्थ और मनुष्य की नियति का विश्लेषण किया। उनकी आलोचना व्यक्तिगत अंतर्द्वंद को सामाजिक विसंगतियों से जोड़ती है।

दलित आलोचक मुख्यधारा के 'सार्वभौमिक मानवतावाद' को नकारते हुए साहित्य को दलित मुक्ति के लिए एक हथियार मानते हैं। इनका प्रस्थान बिंदु भारतीय काव्यशास्त्र नहीं, बल्कि स्वानुभूति और डॉ. अम्बेडकर का दर्शन है।

डॉ. धर्मवीर को दलित आलोचना का वैचारिक प्रणेता माना जाता है। उन्होंने अम्बेडकरवादी दर्शन को आलोचना का एकमात्र आधार बनाया। वे सांस्कृतिक और वैचारिक खंडन पर जोर देते हैं, विशेषकर हिंदू धर्मग्रंथों और मिथकों के आलोचनात्मक मूल्यांकन पर। उनकी पुस्तक 'दलित चिंतन का विकास' दलित आलोचना के सिद्धांतों को स्थापित करती है।

ओम प्रकाश वाल्मीकि ने स्वानुभूति को दलित साहित्य का केंद्रीय और अनिवार्य मापदंड बनाया। वे मानते हैं कि दलितों के दुःख को केवल वही प्रामाणिकता से लिख सकता है, जिसने उसे भोगा हो। उन्होंने दलित सौंदर्यशास्त्र की स्थापना की, जो पारंपरिक सौंदर्य को अस्वीकार कर संघर्ष, पीड़ा और विद्रोह को सौंदर्य का आधार बनाता है।

प्रो. तुलसीराम का योगदान उनके आत्मकथात्मक लेखन 'मुर्दहिया' आदि के आधार पर दलित जीवन-संघर्ष की गहन और आंतरिक आलोचनात्मक व्याख्या में निहित है। उनका दृष्टिकोण दलित शिक्षा, संस्कृति और ग्रामीण जीवन के अंधेरे यथार्थ को उद्घाटित करता है।

जयप्रकाश कर्दम ने दलित साहित्य को मुख्यधारा के सांचे से मुक्त कर उसकी स्वतंत्र पहचान और स्वयं द्वारा मूल्यांकन की पैरवी की। उनका मानना है कि दलित साहित्य को अपने मापदंड स्वयं निर्धारित करने चाहिए, न कि सवर्ण आलोचना के मानकों का अनुसरण करना चाहिए।

मोहनदास नैमिशराय ने दलित साहित्य में इतिहास और यथार्थ के चित्रण को प्राथमिकता दी। उन्होंने अपनी रचनाओं और आलोचनाओं के माध्यम से दलित समाज के उस अनकहे इतिहास को सामने लाने का प्रयास किया, जिसे मुख्यधारा के इतिहास लेखन में उपेक्षित किया गया था।

माताप्रसाद ने दलित साहित्य के इतिहास और उसकी विशिष्ट पहचान को स्थापित करने पर महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने उन गुमनाम दलित रचनाकारों को सामने लाने का प्रयास किया, जिनकी रचनाएँ मुख्यधारा की आलोचना की परिधि से बाहर थीं।

दोनों वर्गों के आलोचकों की तुलना यह दर्शाती है कि हिंदी आलोचना में कलात्मकता और सामाजिक सार्थकता के बीच एक गहरा वैचारिक द्वैत मौजूद है। जहाँ सवर्ण आलोचक रस, लोकमंगल और शिल्प के माध्यम से साहित्य की उत्कृष्टता खोजते हैं, वहीं दलित आलोचक साहित्य में स्वानुभूति की प्रामाणिकता, सामाजिक न्याय की प्रतिबद्धता और विद्रोह की अभिव्यक्ति को सर्वोच्च मानते हैं। यह द्वैत हिंदी साहित्य को सौंदर्य और संघर्ष दोनों आयामों से समझने के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करता है।

 

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