अहम बहै दरियाव - शिवमूर्ति
भारतीय गाँव के रिसते हुए
घावों और अंतहीन संघर्ष का महाकाव्य
(उपन्यास ‘अगम बहै दरियाव’
के संदर्भ में)
शिवमूर्ति की पहचान एक ऐसे कथाकार के रूप में है जो गाँव को रोमानियत के चश्मे से नहीं देखते। उनकी कहानियाँ जैसे ‘तिरिया चरित’, ‘कसाईबाड़ा’ और उपन्यास समाज के उस तल छट को उकेरते हैं जहाँ कानून, संविधान और विकास की किरणें पहुँचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं। ‘अगम बहै दरियाव’ में भी उन्होंने अपनी इसी शैली को विस्तार दिया है, जहाँ उन्होंने व्यवस्था के नग्न सत्य को बिना किसी लाग-लपेट के प्रस्तुत किया है। समकालीन हिंदी कथा साहित्य के कथाकार शिवमूर्ति उन सशक्त हस्ताक्षर हैं, जिनकी लेखनी ग्रामीण भारत की नसों में बहते दर्द, संघर्ष और विद्रूपताओं को पूरी ईमानदारी और बेबाकी से पकड़ती है। उनका उपन्यास ‘अगम बहै दरियाव’ इसी यथार्थवाद का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। समकालीन हिंदी कथा साहित्य के उन विरले रचनाकारों में से हैं जिनकी कलम गाँव की पगडंडियों से गुजरते हुए वहां की धूल, पसीने और रक्त की गंध को जस का तस कागज़ पर उतार देती है। उनका उपन्यास एक कथाकृति के रूप में आज़ादी के बाद के भारतीय ग्रामीण समाज का एक ऐसा समाजशास्त्रीय प्रमाण प्रस्तुत किया है, जो विकास के सरकारी दावों की धज्जियां उड़ा देता है। सत्तर के दशक से शुरू होकर इक्कीसवीं सदी के पहले दशक तक की यात्रा करता यह कृति एक ऐसे कालखंड को समेटता है, जब भारतीय गाँव अपनी पुरानी केंचुली उतारकर नई, मगर अधिक क्रूर व्यवस्था में प्रवेश कर रहे थे। इस उपन्यास का शीर्षक ‘अगम बहै दरियाव’ कबीरपंथी निर्गुण धारा की याद दिलाता है ‘एक ऐसी नदी जिसका कोई ओर-छोर नहीं है। उपन्यास में यह नदी पानी की नहीं, शोषण, अन्याय, संघर्ष और मानवीय पीड़ा की है जो अनवरत बह रही है।
इस उपन्यास का केंद्र ‘बनकट’ गाँव है, जो कल्याणी नदी के किनारे बसा है। यह गाँव प्रेमचंद के ‘गोदान’ और रेणु के ‘मैला आंचल’ के गाँवों का अगला चरण है, जहाँ अब ट्रैक्टर आ चुके हैं, ट्यूबवेल लग गए हैं, और थाने-कचहरी की दौड़ बढ़ गई है। लेकिन, इन भौतिक बदलावों के बावजूद, सामाजिक ढाँचा आज भी मध्ययुगीन बर्बरता से जकड़ा हुआ है। शिवमूर्ति ने गाँव के भूगोल को ही उसके समाजशास्त्र में बदल दिया है। गाँव स्पष्ट रूप से दो हिस्सों में बंटा है। मुख्य गाँव, जहाँ छत्रधारी सिंह, पारस सिंह और भगवत पाँड़े जैसे लोग रहते हैं। यह सत्ता का केंद्र है। सियरहवा टोला जहाँ कभी सियार रहते थे, अब वहाँ दलित और भूमिहीन मजदूर रहते हैं। यह शोषण की प्रयोगशाला है।
सत्तर के दशक में सामंतवाद
अपने नंगे रूप में मौजूद था। दलितों को इंसान नहीं, बल्कि उत्पादन का साधन समझा
जाता था। उन्हें ‘सात पाव’ यानि लगभग पौने दो किलो
अनाज की मजदूरी पर खटाया जाता था। जब वे ‘तीन किलो’ मजदूरी की माँग करते हैं, तो इसे विद्रोह माना जाता
है। यह उपन्यास उस संक्रमण काल
को पकड़ता है जब ‘जी हुजूरी’ करने वाला वर्ग ‘जय भीम’ का नारा लगाने लगता है, और यहीं से संघर्ष की असली
शुरुआत होती है। उपन्यास का सबसे सशक्त और विचलित करने वाला पक्ष भारतीय न्याय
प्रणाली का चित्रण है। संतोखी नाई इस व्यवस्था की
विफलता का प्रतीक है। संतोखी के पिता की मृत्यु के बाद गाँव का दबंग छत्रधारी सिंह एक फर्जी बैनामा यानि विक्रय
पत्र तैयार करवाकर उसके इकलौते खेत पर कब्जा कर लेता है। संतोखी लाठी उठाने के
बजाय कानून का रास्ता चुनता है। वह तीस साल तक मुकदमा लड़ता है। लेखक
ने बहुत बारीकी से दिखाया है कि कैसे निचली अदालत नायब तहसीलदार से लेकर सुप्रीम
कोर्ट तक संतोखी हर मुकदमा जीतता है। उसके पास गवाह के रूप में भूसी भगत भी है और
सबूत भी। लेकिन, व्यवस्था उसे ‘कब्जा’ नहीं दिला पाती। जब भी वह कब्जा लेने
पहुँचता है, छत्रधारी सिंह पैसे के बल
पर उच्च अदालत से ‘स्टे ऑर्डर’ ले आते हैं। संतोखी की कथा
यह प्रतिष्ठित करता है कि भारत में अदालतें ‘फैसला’ सुनाती हैं, ‘न्याय’ नहीं देतीं। गरीब गुरबे के
लिए न्याय एक ऐसी मृगमरीचिका है जिसका पीछा करते-करते आदमी की पूरी उम्र और संसाधन
खत्म हो जाते हैं। अंत में, कानून से हताश होकर संतोखी
बागी ‘जंगू’ की शरण में जाता है, जो इस बात का प्रमाण है कि
जब संवैधानिक संस्थाएँ फेल होती हैं, तो समाज कानून को अपने हाथ
में लेने पर मजबूर होता है।
उपन्यास का दूसरा प्रमुख स्तंभ भगवत पाँड़े की कथा है, जो भारतीय किसान की त्रासदी को स्वर देती है। उदारीकरण, बैंकिंग सिस्टम और सरकारी नीतियां मिलकर किसान को मौत के मुँह में धकेल रही हैं। पाँड़े जी एक खुशमिजाज, नौटंकी के शौकीन इंसान थे। आधुनिक बनने की चाह में और बेटों के भविष्य के लिए वे बैंक से लोन लेकर ट्रैक्टर खरीदते हैं। यहाँ लेखक ने ‘कॉर्पोरेट लूट’ और ‘सरकारी तंत्र’ की मिलीभगत को उजागर किया है। बैंक अधिकारी और दलाल मिलकर अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे किसानों को लोन के जाल में फँसाते हैं। पाँड़े जी आलू और प्याज उगाते हैं, लेकिन बाजार में उनका दाम इतना गिर जाता है कि लागत भी नहीं निकलती। आलू को कोल्ड स्टोरेज के बाहर सड़ाना पड़ता है। बेटे की पुलिस की नौकरी लगवाने के लिए उन्हें खेत गिरवी रखकर घूस देनी पड़ती है, लेकिन सरकार बदलने पर भर्ती रद्द हो जाती है और पैसा डूब जाता है। वे गन्ना उगाते हैं, लेकिन मिल मालिक भुगतान नहीं करते। कोर्ट के आदेश के बावजूद मिलें पैसा दबाए बैठी रहती हैं, और किसान को अपनी खड़ी फसल में आग लगानी पड़ती है। जब बैंक कुर्की का नोटिस भेजता है और रिश्तेदार भरे समाज में उन्हें जूतों से पीटते हैं, तो पाँड़े जी का स्वाभिमान टूट जाता है। वे अपने ही खेत में महुए के पेड़ से लटककर जान दे देते हैं। उनकी जेब से मिली पुर्जी, जिस पर ब्याज का हिसाब लिखा था, यह चीख-चीख कर बताती है कि इस देश में किसान को मौसम नहीं, बल्कि व्यवस्था मारती है।
शिवमूर्ति ने दलित विमर्श को सहानुभूति के धरातल पर नहीं, राजनीतिक यथार्थवाद के धरातल पर रखा है। उपन्यास में दलितों का सफर ‘मूक पशु’ से ‘सचेत नागरिक’ बनने का है। दलित वकील तूफानी और बागी जंगू इस चेतना के दो ध्रुव हैं। तूफानी संवैधानिक रास्ते से हक माँगता है, जबकि जंगू हथियार के बल पर। वे ‘तिलक तराजू’ के खिलाफ नारे देते हैं और सत्ता में हिस्सेदारी माँगते हैं। दलित महिला दहबंगा का प्रधान बनना इस सामाजिक बदलाव का बड़ा संकेत है। उपन्यास का यह पक्ष अत्यंत महत्वपूर्ण है। दलित राजनीति, जो सामाजिक न्याय के वादे के साथ शुरू हुई थी, अंततः सत्ता के खेल में ‘अवसरवाद’ की शिकार हो गई। ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के नाम पर पार्टी उन्हीं सामंतों, ब्राह्मणों, बाहुबलियों को गले लगा लेती है, जिनके खिलाफ वह खड़ी हुई थी। तूफानी जैसे जमीनी कार्यकर्ता को दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका जाता है और धनपति कमला चौधरी को टिकट बेचा जाता है। यह प्रसंग लोकतंत्र में विचारधारा की मृत्यु का शोकगीत है।
पुलिस और प्रशासन का चेहरा बेहद भयावह चित्र उकेरा गया है। थाने न्याय के मंदिर की जगह ‘टॉर्चर चेंबर’ हैं। पुलिस निर्दोषों को पकड़ती है और उन्हें अमानवीय यातनाएं देती है। ‘मोटू’ जैसे पात्र को पुलिस कस्टडी में इतना पीटा जाता है कि उसकी मौत हो जाती है, और पुलिस बेशर्मी से इसे लीपापोती कर देती है। जंगू को पकड़ने में नाकाम पुलिस अपनी साख बचाने के लिए निर्दोष लड़कों को पकड़कर जंगल ले जाती है और उन्हें गोली मारकर ‘मुठभेड़’ की कहानी गढ़ देती है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में “शॉट मल्टीपल टाइम्स” और “ब्लैकेनिंग अरऑउन्ड वून्ड” पास से गोली मारना जैसे वाक्यांश पुलिसिया हत्या की गवाही देते हैं। हर स्तर पर घूसखोरी है। चाहे वह नसबंदी का लक्ष्य पूरा करना हो या एफआईआर लिखना, बिना पैसे के पत्ता भी नहीं हिलता।
उपन्यास में स्त्रियाँ पितृसत्ता और जाति दोनों की चक्की में पिसती हैं, लेकिन वे कमजोर नहीं हैं। सोना और बुल्लू की प्रेम कथा उपन्यास का कोमल पक्ष है, जिसकी परिणति ‘ऑनर किलिंग’ में होती है। सोना का पति फौजी है, जो शक के आधार पर बुल्लू की हत्या कर देता है। लेकिन सोना चुप नहीं रहती। वह भरी अदालत में अपने पति के खिलाफ गवाही देती है और कहती है कि “मेरे पति ने ही उसे मारा है”। यह एक स्त्री का अपने ‘सुहाग’ और ‘समाज’ के खिलाफ सत्य के लिए खड़ा होना है। बोधा बहू समाज में में एक दबंग स्त्री के रूप उभरती है, वह नसबंदी करने आए अधिकारी को पकड़कर उसकी नसबंदी करने की धमकी देती है। यह ग्रामीण स्त्री की उस शक्ति का परिचायक है जो संकट के समय दुर्गा का रूप ले सकती है।
इस उपन्यास का शीर्षक एक कबीरपंथी भजन की पंक्ति प्रतीत होती है, जो जीवन और संघर्ष के अंतहीन प्रवाह को दर्शाती है। इस उपन्यास का कथानक प्रमाणित करता है कि शोषण का दरिया गहरा है, लेकिन उसके विरुद्ध संघर्ष की धारा भी अब फूट पड़ी है। जहाँ पहले दलित चुपचाप अत्याचार सहते थे, अब वे ‘जय भीम’ के नारे के साथ अपनी अस्मिता और सत्ता में हिस्सेदारी की लड़ाई लड़ रहे हैं। नेल्सन मंडेला का प्रसंग जोड़कर लेखक इस स्थानीय संघर्ष को वैश्विक रंगभेद विरोधी संघर्ष से जोड़ देते हैं। यह उपन्यास भारतीय गाँव के बदलते हुए सामाजिक-राजनैतिक ताने-बाने की एक सशक्त और बेबाक कहानी कहता है। भारतीय ग्रामीण जीवन की विडंबनाओं, टूटते हुए किसानी समाज, जातिगत संघर्ष और न्याय व्यवस्था के खोखलेपन का एक मार्मिक चित्रण है। उपन्यास का एक बड़ा हिस्सा किसानों की बदहाली और सरकारी तंत्र द्वारा उनके शोषण पर केंद्रित है। जिसमें दिखाया गया है कि कैसे ‘अन्नदाता’ धीरे-धीरे ‘भिखारी’ और अंततः ‘आत्महत्या’ की ओर धकेला जा रहा है।
विद्रोही जी का बेटा पहलवान एक मेहनती किसान हैं, लेकिन व्यवस्था उन्हें तोड़ देती है। चीनी मिलें गन्ने का भुगतान नहीं करतीं, और मजबूर होकर पहलवान को अपनी खड़ी फसल में आग लगानी पड़ती है क्योंकि उसकी पेराई नहीं हो सकी । पाँड़े की आत्महत्या और अपनी आर्थिक तंगी के कारण पहलवान मानसिक रूप से विचलित हो जाते हैं। वे लाठी लेकर “सरकार” को खोजने निकलते हैं कि “कहाँ रहती है सरकार?” जिसे वे पीट सकें। रामलाल जैसे किसान बैंक और दलालों के गठजोड़ का शिकार होते हैं, जहाँ उनके नाम पर फर्जी लोन निकालकर ट्रैक्टर खरीद लिया जाता है और वसूली का नोटिस उन्हें मिलता है।
इस उपन्यास का उद्देश्य समकालीन भारतीय ग्रामीण समाज की नब्ज को टटोलना और उसकी विद्रूपताओं को बेपर्दा करना है। उपन्यास का सबसे प्रमुख उद्देश्य यह दिखाना है कि भारत की न्याय प्रणाली गरीबों और वंचितों के लिए विफल हो चुकी है। लेखक संतोखी के चरित्र के माध्यम से यह स्थापित करते हैं कि अदालतों में ‘कानून’ की जीत होती है, ‘न्याय’ की नहीं। तीस साल मुकदमा लड़ने और जीतने के बावजूद संतोखी को न्याय नहीं मिलता, बल्कि उसे बाहुबल और ‘स्टे ऑर्डर’ के जरिए हरा दिया जाता है। जब संवैधानिक संस्थाएँ फेल हो जाती हैं, तो समाज ‘जंगू’ जैसे बागियों की शरण में जाने को मजबूर होता है। लेखक यह प्रश्न खड़ा करते हैं कि क्या बंदूक का न्याय ही अंतिम विकल्प है?। लेखक का उद्देश्य दलित समाज में आए बदलाव और उनके आत्म-सम्मान के संघर्ष को रेखांकित करना है। दलित अब केवल ‘वोट बैंक’ या ‘सस्ती लेबर’ नहीं रहे। वे अब ‘जय भीम’ के नारे के साथ अपनी अस्मिता, इतिहास और सत्ता में हिस्सेदारी की माँग कर रहे हैं। छत्रधारी सिंह और अन्य सामंती पात्रों के माध्यम से उस मानसिकता पर चोट की है जो दलितों के उत्थान जैसे प्रधान बनना या मूर्ति लगाना को पचा नहीं पा रही है और हिंसक हो उठती है। उपन्यास का एक मूल उद्देश्य ‘अन्नदाता’ की दयनीय स्थिति को सामने लाना है। भगवत पाँड़े की आत्महत्या के माध्यम से लेखक ने यह दिखाया है कि कैसे सरकारी नीतियाँ, बैंक का ब्याज और फसल का उचित मूल्य न मिलना किसान को मौत के गले लगाने पर मजबूर कर देता है। यह व्यवस्था किसान को भिखारी बना रही है। कर्ज माफी और सरकारी योजनाओं का लाभ जरूरतमंदों तक नहीं पहुँचता, बल्कि बिचौलिए और सिस्टम उसे खा जाते हैं। राजनीति के उस घिनौने चेहरे को बेनकाब किया है जो आदर्शों की बात करती है लेकिन व्यवहार में केवल सत्ता की भूखी है। राजनीति से तूफानी का निष्कासन और धनपतियों को टिकट देना यह दिखाता है कि राजनीति में अब समर्पित कार्यकर्ताओं की जगह नहीं बची है। ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के नाम पर शोषक और शोषित का अप्राकृतिक गठबंधन केवल सत्ता प्राप्ति का साधन है। पुलिस थाने न्याय के मंदिर नहीं, बल्कि यातना गृह हैं। निर्दोषों को झूठे केस में फँसाना, एनकाउंटर के नाम पर हत्या करना और अपराधियों से सांठ-गांठ करना पुलिस की कार्यप्रणाली बन चुका है। स्त्रियों की दोहरी पीड़ा ‘जातिगत और लैंगिक’ को भी स्वर दिया है। सोना की गवाही के माध्यम से लेखक ने यह संदेश दिया है कि न्याय और सत्य के लिए स्त्रियाँ अपने पति और परिवार के खिलाफ जाने का साहस भी जुटा सकती हैं। ‘अगम बहै दरियाव’ का उद्देश्य पाठकों को उस “दरिया” शोषण और संघर्ष की अंतहीन धारा के दर्शन कराना है जो भारतीय लोकतंत्र की सतह के नीचे बह रही है। यह उपन्यास पाठकों को सजग करना चाहता है ताकि वे इस व्यवस्थागत सड़न को पहचान सकें और सवाल पूछ सकें कि आखिर “कहाँ रहती है सरकार?”।
इस उपन्यास का शीर्षक प्रतीकात्मक, व्यंग्यात्मक और दार्शनिक है। यह शीर्षक उपन्यास की मूल संवेदना और कथानक के प्रवाह को पूरी तरह से समाहित करता है। ‘अगम बहै दरियाव’ का शाब्दिक अर्थ है- “एक ऐसी नदी जो अगाध है, जिसका कोई ओर-छोर नहीं है और जो लगातार बह रही है।” यह शीर्षक भारतीय ग्रामीण समाज में सदियों से चले आ रहे शोषण के अंतहीन सिलसिले का प्रतीक है। सत्ता बदल जाती है, लेकिन गरीब किसान और दलित के शोषण की ‘नदी’ निरंतर बहती रहती है। संतोखी का संघर्ष इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। वह तीस साल तक न्याय की आस में मुकदमा लड़ता है। एक पीढ़ी मुकदमा दायर करती है और दूसरी फैसला सुनती है, फिर भी न्याय नहीं मिलता। यह संघर्ष एक ऐसी नदी की तरह है जिसका कोई किनारा नहीं दिखता। ‘अगम’ शब्द का अर्थ है जिसे मापा न जा सके या जहाँ पहुँचा न जा सके। उपन्यास में सरकारी तंत्र, पुलिस और कचहरी का भ्रष्टाचार इतना गहरा है कि एक आम आदमी उसमें डूब जाता है। भगवत पाँड़े जैसे किसान बैंक के कर्ज और ब्याज के ऐसे ‘दरिया’ में फँसते हैं कि उससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं बचता। अंततः वे उसी में डूबकर मर जाते हैं। पुलिस की कार्यप्रणाली टॉर्चर, फर्जी एनकाउंटर और अदालती ‘स्टे ऑर्डर’ का खेल इस बात का प्रमाण है कि अन्याय की यह नदी कितनी गहरी और खतरनाक है। ‘दरियाव’ जीवन के सुख-दुख के प्रवाह का भी द्योतक है। उपन्यास में पात्रों की पीड़ा रुकती नहीं है, वह बहती रहती है। बुल्लू की हत्या और सोना की त्रासदी, तूफानी का राजनीतिक छल का शिकार होना, ये सब दुख की उस धारा का हिस्सा हैं जो ग्रामीण जीवन में अनवरत बह रही है। शीर्षक इस बात की ओर इशारा करता है कि ग्रामीण भारत में विपत्तियाँ एक के बाद एक लहरों की तरह आती हैं , कभी सूखा, कभी बाढ़, कभी कुर्की, कभी पुलिस का कहर के रुप में। नदी गतिशीलता का भी प्रतीक है। उपन्यास में सामाजिक परिवर्तन की एक धारा भी बह रही है। दलित अब मूक नहीं हैं। वे ‘जय भीम’ के नारे लगा रहे हैं, सत्ता में भागीदारी माँग रहे हैं और अन्यायी के खिलाफ हथियार भी उठा रहे हैं। भले ही यह धारा अभी पूरी व्यवस्था को बदल नहीं पाई है, लेकिन इसका बहना जारी है। शीर्षक इस बदलते हुए सामाजिक यथार्थ को भी रेखांकित करता है। ‘अगम बहै दरियाव’ पंक्ति कबीरपंथी या निर्गुण संतों की वाणी जैसी प्रतीत होती है, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोक-संस्कृति में रची-बसी है। उपन्यास की भाषा और परिवेश अवधी बोली, नौटंकी, बिरहा के अनुरूप यह शीर्षक आंचलिकता को सुदृढ़ करता है। यह उस दार्शनिक भाव को व्यक्त करता है कि जीवन और जगत का यह प्रपंच समझ से परे यानि अगम है। इस उपन्यास का शीर्षक ‘अगम बहै दरियाव’ पूर्णतः सार्थक और औचित्यपूर्ण है।
‘अगम बहै दरियाव’ हिंदी उपन्यास साहित्य में
एक मील का पत्थर है। शिवमूर्ति ने अपनी आंचलिक भाषा, ठेठ मुहावरों और लोकगीतों
फगुआ, कजरी के माध्यम से कथा को
इतनी विश्वसनीयता दी है कि पाठक खुद को ‘बनकट’ गाँव का निवासी महसूस करने
लगता है। इस उपन्यास का महत्व इसलिए भी है क्योंकि यह किसी एक ‘वाद’ का पक्षधर नहीं है। यह
सवर्णों की क्रूरता को दिखाता है तो दलित राजनीति के पतन को भी नहीं बख्शता। यह
बागी जंगू के न्याय को दिखाता है तो उसके हिंसक रास्ते पर सवाल भी खड़े करता है। व्यवस्था
एक ऐसा ‘अगम दरियाव’ है जिसमें संतोखी का धैर्य, पाँड़े का स्वाभिमान और
तूफानी का संघर्ष सब कुछ डूब जाता है। लेकिन, यह उपन्यास हताशा का नहीं, बल्कि ‘जागृति’ का आह्वान है। उपन्यासकार
प्रश्न खड़ा करता है कि ‘विकास की चमकती हुई सड़कों के नीचे दबी हुई किसानों और
मजलूमों की चीखें कब सुनी जाएँगी?’। इक्कीसवीं सदी के ‘इंडिया’ और ‘भारत’ के बीच की खाई को पाटने
वाला एक साहसी और जरूरी हस्तक्षेप है।
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