बाज़ारवाद और भौतिकता के दौर में संवेदनाओं की मृत्यु
(उपन्यास
‘विघटन’ के
विशेष संदर्भ में)
अजय चौधरी
Mob: 8981031969
विपिन बिहारी कृत ‘विघटन’ एक सामाजिक उपन्यास है, जिसमें तत्कालीन समाज में परिवार की इकाई के वास्तविक स्वरूप को दिखाने का प्रयास किया गया है। आधुनिकता के इस दौर में, व्यक्ति भौतिकवादी होने के कारण धीरे-धीरे परिवार से टूटता जा रहा है। इस उपन्यास में भी एक संयुक्त परिवार के धीरे-धीरे टूटने की प्रक्रिया को दर्शाया गया है। हालाँकि, उपन्यासकार ने जिस पारिवारिक संगठन की बात इस कृति में की है, वह प्रायः समाज में हमें दिखाई देता है। जिस परिवार की कल्पना के माध्यम से उपन्यासकार ने एक ऐसी समस्या को पाठकों के समक्ष लाने का प्रयास किया है, वह स्वाभाविक न होते हुए भी भौतिकवादी आंधी का पर्याय बन गई है।
जब
कोई बच्चा जन्म लेता है, तो
उसे एक भरा-पूरा परिवार मिलता है। वह पारंपरिक सोच के आधार पर चाहता है कि परिवार
कभी न टूटे और हमेशा एक अटूट बंधन में बंधा रहे। किन्तु, धीरे-धीरे
वह बच्चा बड़ा होता है, उसकी
शादी होती है और बच्चे होते हैं। समय के साथ-साथ विचारों में परिवर्तन आता है।
आधुनिकता का प्रभाव इस कदर हावी हो जाता है कि पारंपरिक मूल्यों का कोई मोल नहीं
रह जाता। घर का मुखिया लाख चाहने के बावजूद परिवार की आंतरिक एकता को बनाए रखने
में असफल हो जाता है। इस
असफलता के पीछे आधुनिक भौतिकवादी नीति जिम्मेदार है। मनुष्य दिन-प्रतिदिन स्वार्थी
होता जा रहा है। स्वार्थी होने के कारण वह निजी सुख-दुःख को ही सर्वोपरि मानता है।
साथ ही, समाज
की बदलती आर्थिक स्थितियों के कारण संगठित परिवार का टिक पाना कठिन होता जा रहा
है। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ रहा है, विचारों
में मतभेद गहरे हो रहे हैं। पिता की विचारधारा बेटे से नहीं मिलती, माँ
की विचारधारा बेटी से नहीं मिलती। आधुनिक विचार के लोग अपने पूर्वजों या माता-पिता
के विचारों को उस स्तर तक सम्मान नहीं दे पाते, जो
अपेक्षित है। इसी कारण परिवार में एक टूटन व बिखराव देखने को मिलता है।’
यह
उपन्यास भारतीय समाज की उस दुखद यथार्थ को रेखांकित करता है जहाँ ‘संयुक्त
परिवार’ की
संस्था ढह रही है। उपन्यासकार ने स्पष्ट किया है कि आधुनिकता वेशभूषा या रहन-सहन
का बदलाव नहीं है, यह
एक मानसिक संक्रमण है। बाज़ारवाद और भौतिकतावाद ने मनुष्य की संवेदनाओं को कुचल
दिया है। पहले जहाँ ‘हम’ की
भावना थी, अब
वहाँ ‘मैं’ का
अहंकार हावी हो गया है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने रिश्तों को भी ‘उपयोगिता’ की
कसौटी पर कसना शुरू कर दिया है। घर का मुखिया बरगद के पेड़ की तरह है, जो
अपनी जड़ों को बचाए रखना चाहता है। उसके लिए परिवार का साथ रहना ही सबसे बड़ी
संपत्ति है। युवा वर्ग के लिए ‘निजता’ और
‘व्यक्तिगत
स्वतंत्रता’
सर्वोपरि है। उनके लिए संयुक्त परिवार का अनुशासन एक बंधन या बेड़ी जैसा है। उपन्यासकार
ने बड़ी सूक्ष्मता से दिखाया है कि संवादहीनता कैसे इस खाई को और चौड़ा कर देती
है। पिता के अनुभव और पुत्र की महत्वाकांक्षा के बीच का टकराव ही इस विघटन का मूल
कारण बनता है। परिवारों के टूटने के पीछे वैचारिक मतभेद ही नहीं,
आर्थिक कारण भी हैं। सीमित आय और असीमित आकांक्षाओं के बीच फँसा मनुष्य स्वार्थी
हो जाता है। शहरीकरण और नौकरियों की तलाश में पलायन ने संयुक्त चूल्हे को अलग-अलग
गैस सिलेंडरों में बाँट दिया है। महंगाई और जीवन स्तर को ऊँचा उठाने की होड़ में
व्यक्ति केवल अपने और अपनी पत्नी-बच्चों तक सिमट कर रह गया है।
उपन्यास
का सबसे मार्मिक पहलू संवेदनाओं की मृत्यु है। जन्म के समय जो बच्चा परिवार के
लाड़-प्यार में पलता है, वही
बड़ा होकर माता-पिता को बोझ समझने
लगता है। उपन्यासकार सवाल खड़ा करता है कि क्या शिक्षा और प्रगति का अर्थ अपनों से
दूर होना है? ‘निजी
सुख-दुःख’ तक
सिमटना भारतीय जीवन-मूल्यों का पतन है। जब घर की दीवारें ऊँची और आंगन छोटे होने
लगते हैं, तो
रिश्तों में भी दीवारों का निर्माण हो जाता है। यह एक परिवार की कहानी नहीं है,
यह बदलते हुए भारत का समाजशास्त्रीय मसौदा है। लेखक ने यह चेतावनी दी है कि यदि
भौतिकवाद की आंधी में हमने अपनी परिवार और मूल्यों को छोड़ दिया, तो
अंततः हम एक एकाकी और अवसादग्रस्त समाज का निर्माण करेंगे। घर का मुखिया अपनी तमाम
कोशिशों के बाद भी अगर हारता है, तो
वह हार एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि
पूरी ‘पारिवारिक
संस्था’ की
हार है।
पिता
के रूप में रामेश्वर एक सिद्धांतवादी और पुराने मूल्यों को मानने वाले व्यक्ति, जो
अपने परिवार को एकजुट रखना चाहते हैं। रामेश्वर की पत्नी सावित्री परिवार की धुरी, जो
सभी को जोड़कर रखने की कोशिश करती है, लेकिन
बदलते हालात में खुद को असहाय पाती है। बड़ा बेटा दिनेश, महत्वाकांक्षी और व्यावहारिक, जो
अपने करियर और व्यक्तिगत जीवन को प्राथमिकता देता है। उसकी पत्नी सुमन भी आधुनिक
विचारों वाली है। छोटा बेटा सुरेश, थोड़ा
लापरवाह और कलात्मक प्रवृत्ति का, जो
परिवार की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाता। बेटी रेखा, स्वतंत्र विचारों वाली, जो
अपने जीवन के फैसले खुद लेना चाहती है, जिससे
परिवार में तनाव पैदा होता है। उपन्यास की शुरुआत एक संयुक्त परिवार के रूप में
होती है जहाँ रामेश्वर और सावित्री अपने बच्चों के साथ रहते हैं। सब कुछ सामान्य
लगता है, लेकिन
सतह के नीचे तनाव पनप रहा है। दिनेश की शादी और उसकी पत्नी सुमन के आगमन के साथ
परिवार में बदलाव शुरू होता है। सुमन के आधुनिक विचार और रहन-सहन सावित्री और
रामेश्वर के पारंपरिक तरीकों से मेल नहीं खाते। छोटी-छोटी बातों पर बहस और
गलतफहमियाँ बढ़ने लगती हैं। रेखा का अपनी पसंद के लड़के से शादी करने का फैसला,
परिवार में एक बड़ा तूफान खड़ा कर देता है। रामेश्वर इसे अपनी प्रतिष्ठा और
मूल्यों के खिलाफ मानते हैं, जबकि
रेखा इसे अपना अधिकार समझती है। यह घटना परिवार में पहली बड़ी दरार पैदा करती है। दिनेश
अपनी तरक्की के लिए शहर जाने का फैसला करता है, जिससे
रामेश्वर को गहरा धक्का लगता है। दूसरी ओर, सुरेश
की असफलताएँ और उसका परिवार से कटाव बढ़ता जाता है। आर्थिक दबाव भी रिश्तों में
खटास पैदा करता है। धीरे-धीरे सभी बच्चे अपने-अपने रास्ते चले जाते हैं। दिनेश
अपनी दुनिया में व्यस्त हो जाता है, रेखा
अपने परिवार के साथ अलग हो जाती है, और
सुरेश भी घर छोड़ देता है। रामेश्वर और सावित्री अकेले रह जाते हैं। उपन्यास का
अंत एक दुखद और विचारोत्तेजक मोड़ पर
होता है। रामेश्वर की मृत्यु हो जाती है और सावित्री बिल्कुल अकेली रह जाती है। यह
अंत उस ‘विघटन’ को पूर्ण रूप से दर्शाता है जो कहानी का केंद्रीय विषय है - एक
भरे-पूरे परिवार का बिखर जाना और रिश्तों का खोखलापन।
‘विघटन’
मुख्य रूप से आधुनिक जीवनशैली और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की चाह ने संयुक्त परिवार
की नींव को कैसे कमजोर किया है। पुरानी और नई पीढ़ी के मूल्यों, सोच
और जीवन जीने के तरीकों में टकराव। भीड़-भाड़ वाले समाज में भी व्यक्ति का अकेलापन
और रिश्तों में बढ़ता अलगाव दिखाता है कि कैसे समाज में भौतिकवाद और व्यक्तिवाद
हावी हो रहा है, और
मानवीय संवेदनाएँ पीछे छूट रही हैं। यह उपन्यास एक परिवार की कहानी के माध्यम से
पूरे समाज के बदलते स्वरूप और उससे उत्पन्न चुनौतियों का एक यथार्थवादी चित्रण
प्रस्तुत करता है।
उपन्यास
का सबसे सशक्त भाव पक्ष ‘पीड़ा’ है।
यह पीड़ा शोर मचाने वाली नहीं, बल्कि
अंदर ही अंदर घुटने वाली है। रामेश्वर का अपने सिद्धांतों को हारते हुए देखना और
सावित्री का अपने भरे-पूरे परिवार को बिखरते हुए देखने की विवशता, उपन्यास
को एक त्रासद गरिमा प्रदान करती है। लेखक ने उस दर्द को पकड़ा है जो तब होता है जब
जिन बच्चों को उंगली पकड़कर चलना सिखाया, वे
ही हाथ झटक कर अपनी राह पकड़ लेते हैं। उपन्यास दो युगों के संधिस्थल पर खड़ा है,
यह द्वंद्व स्पष्ट झलकता है। एक तरफ सामूहिकता, त्याग
और मर्यादा के पुराने मूल्य हैं, तो
दूसरी तरफ व्यक्तिवाद, महत्त्वाकांक्षा
और स्वतंत्रता के नए मूल्य हैं। जब पुराने मूल्य अप्रासंगिक होने लगते हैं और नए
मूल्य पूरी तरह स्थापित नहीं हो पाते, तो
उस संक्रमण काल में मनुष्य कितनी मानसिक उथल-पुथल से गुजरता है।
‘विघटन’
भौतिक अलगाव के साथ यह आधुनिक मनुष्य के गहरे अकेलेपन का है। परिवार के बीच रहते हुए भी पात्र एक-दूसरे
से अजनबी हैं। रामेश्वर का वैचारिक अकेलापन और अंत में सावित्री का नितांत भौतिक
अकेलापन, इस
बात का प्रतीक है कि भीड़भाड़ वाले आधुनिक समाज में व्यक्ति भावनात्मक स्तर पर
नितांत एकाकी हो गया है। उपन्यास का भाव जगत मध्यवर्गीय जीवन के यथार्थ से उपजा
है। आर्थिक दबावों के बीच संस्कारों को बचाए रखने की जद्दोजहद और सामाजिक
प्रतिष्ठा का झूठा बोझ—इन विडंबनाओं को लेखक ने बखूबी उकेरा है। दिनेश का शहर जाना
महत्त्वाकांक्षा नहीं,
आर्थिक आवश्यकता भी हो सकती है, लेकिन
यह आवश्यकता कैसे रिश्तों पर भारी पड़ती है, यही
उपन्यास का दर्द है। उपन्यासकार ने पात्रों के अंतर्मन में झांकने का सफल प्रयास
किया है। रामेश्वर की हठधर्मिता के पीछे का अपनी सत्ता खोने का डर और बच्चों के
विद्रोह के पीछे की घुटन को मनोवैज्ञानिक स्तर पर चित्रित किया गया है।
उपन्यास
की भाषा आडंबरहीन, सरल
और प्रवाहमयी खड़ी बोली हिंदी है, जो
आम मध्यवर्गीय परिवारों में बोली जाती है। भाषा पात्रों के स्तर और परिस्थिति के
अनुकूल बदलती है। रामेश्वर की भाषा में जहाँ थोड़ी गंभीरता और सिद्धांतों का
भारीपन है, वहीं
नई पीढ़ी की भाषा में आधुनिकता और तल्खी है। कथा को आगे बढ़ाने के लिए वर्णनात्मक
शैली का प्रयोग किया है, लेकिन
जहाँ भावनाओं की गहराई दिखानी होती है, जैसे रामेश्वर का अंतद्वंद्व या सावित्री
की चुप्पी, वहाँ शैली अत्यंत भावात्मक
और मर्मस्पर्शी हो जाती है।
उपन्यास
की कथा एक सीधी रेखा में चलती है। परिवार की भरी-पूरी स्थिति से शुरू होकर
धीरे-धीरे विघटन और अंततः पूर्ण सूनेपन तक जाति है। यह संरचना उस धीमी प्रक्रिया
को दर्शाती है जिससे एक संयुक्त परिवार टूटता है। यह कोई अचानक हुई घटना नहीं, बल्कि
एक क्रमिक क्षरण है। शिल्प की दृष्टि से लेखक ने तनाव को बहुत संभलकर बुना है।
शुरुआत में छोटी-छोटी खटपट होती है, जो
बाद में बड़े वैचारिक विस्फोटों और फिर स्थायी अलगाव में बदल जाती है।
उपन्यास
के पात्र सिर्फ व्यक्ति नहीं, अपितु
समाज की विभिन्न प्रवृत्तियों के प्रतिनिधि हैं। रामेश्वर ‘मरती
हुई परंपरा’ के
प्रतीक हैं, दिनेश
‘व्यावहारिक
आधुनिकता’ का, और
रेखा ‘स्त्री-स्वातंत्र्य’ की
नई चेतना का प्रतीक है। पात्रों को देवतुल्य या दानव नहीं बनाया गया है। वे
गुण-दोषों से युक्त सामान्य इंसान हैं। रामेश्वर की सिद्धांतों के प्रति अतिशय
आग्रह उन्हें कई बार कठोर बना देता है, वहीं
बच्चों की अपनी मजबूरियां हैं। यह यथार्थवादी चित्रण उपन्यास को विश्वसनीय बनाता
है।
संवाद
उपन्यास की रीढ़ हैं। ‘विघटन’ के संवाद छोटे, तीखे
और मर्मभेदी हैं। वे सिर्फ सूचना नहीं देते, पात्रों के बीच की खाई को चौड़ा करते हैं। कई
बार जो नहीं कहा जाता, वह
कहे गए शब्दों से अधिक प्रभावी होता है। पीढ़ियों के बीच संवादहीनता को दर्शाने के
लिए संवादों का बहुत सधा हुआ प्रयोग किया गया है। लेखक ने घर के वातावरण को एक
पात्र की तरह इस्तेमाल किया है। शुरू में जो घर भरा-पूरा और जीवंत था, अंत
में वही घर एक काटने वाली चुप्पी और खालीपन से भर जाता है। भौतिक परिवेश का यह
बदलाव पात्रों की आंतरिक मनःस्थिति का आईना बन जाता है।
किसी
भी साहित्यिक कृति का शीर्षक उसका प्रवेश द्वार होता है, जो
पाठक को कृति की मूल संवेदना और विषय-वस्तु का प्रथम परिचय देता है। एक सार्थक
शीर्षक वह होता है जो गागर में सागर की तरह पूरी कथा के सार को अपने भीतर समेटे
हो। इस तथ्य पर परखने पर, उपन्यास
का शीर्षक ‘
विघटन’ पूर्णतः सार्थक और उपयुक्त है, यह
उपन्यास की आत्मा को अभिव्यक्त करने वाला एकमात्र सटीक शब्द प्रतीत होता है। ‘विघटन’ का
शाब्दिक अर्थ है- टूटना, बिखरना, अलग
होना, या
किसी संगठित इकाई का नष्ट हो जाना। यह उपन्यास शुरुआत से अंत तक इसी ‘टूटने’ और
‘बिखरने’ की
प्रक्रिया की कहानी कहता है।
यह
उपन्यास पाठकों के समक्ष प्रश्न उठाता है- क्या परंपराों से मुक्ति ही वास्तविक
सुख है? नई
पीढ़ी दिनेश, रेखा
संयुक्त परिवार के बंधनों और पिता के अनुशासन से ‘स्वतंत्र’ तो
हो जाती है, लेकिन
क्या वे वास्तव में सुखी हैं?
उपन्यास यह इंगित करता है कि आधुनिकता ने व्यक्ति को ‘सामूहिकता
के बोझ’ से
तो मुक्त कर दिया है, लेकिन
उसे ‘अकेलेपन
के नए पिंजरे’ में
कैद कर दिया है। जो बच्चे परिवार से अलग होकर अपनी दुनिया बसाते हैं, वे
अक्सर एक ऐसी दौड़ में शामिल हो जाते हैं, जहाँ वे भावनात्मक सुरक्षा कवच खो देते हैं, जो संयुक्त परिवार प्रदान
करता था। यह उपन्यास आधुनिक स्वतंत्रता की कीमत को रेखांकित करता है, जो अक्सर
अलगाव और असुरक्षा के रूप में चुकानी पड़ती है। अक्सर चर्चा पिता रामेश्वर के
सिद्धांतों के टूटने या बच्चों के विद्रोह पर होती है, लेकिन
मेरे विचार से इस उपन्यास की सबसे त्रासद पात्र माँ सावित्री है। सावित्री उस पुल
की तरह है जिस पर से पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी गुजरती है, और
इस प्रक्रिया में वह पुल ही टूट जाता है। वह रामेश्वर के मूल्यों का सम्मान करती
है लेकिन बच्चों की आधुनिक आकांक्षाओं को भी समझती है या समझने की कोशिश करती है।
वह दोनों पाटों के बीच पिसती है। उसकी त्रासदी यह है कि वह सबको जोड़ना चाहती है, लेकिन
उसके पास कोई अधिकार या शक्ति नहीं है। अंत में, वह
पति को खो देती है और बच्चे उसे छोड़ देते हैं। सावित्री उस भारतीय नारी का प्रतीक
है जिसने अपना अस्तित्व होम कर दिया, लेकिन
बदलते समय ने उसके त्याग को अप्रासंगिक बना दिया।
यदि
हम भावुकता से परे हटकर देखें, तो
‘विघटन’ को एक दुखद घटना के रूप में नहीं, बल्कि
समाज विकास की एक अनिवार्य प्रक्रिया के रूप में भी देखा जा सकता है। संयुक्त
परिवार कृषि-प्रधान ग्रामीण अर्थव्यवस्था के अनुकूल थे। जैसे-जैसे समाज का
औद्योगीकरण और शहरीकरण हुआ, जीवनशैली
बदली। छोटे फ्लैटों, महँगाई
और नौकरी की भागदौड़ में पुराने संयुक्त परिवार के ढांचे का टिक पाना व्यावहारिक
रूप से असंभव हो गया। इस दृष्टि से, रामेश्वर
की त्रासदी यह है कि वे समय के पहिये को रोकना चाहते थे। जो टूट रहा है, वह
शायद टूटने के लिए ही अभिशप्त था क्योंकि वह नए समय के साथ तालमेल नहीं बिठा पा
रहा था। सामाजिक बदलाव अक्सर निर्दयी होते हैं और वे पुरानी पीढ़ियों को कुचलते
हुए आगे बढ़ते हैं।
पुस्तक: विघटन (उपन्यास)
लेखक: विपिन बिहारी
प्रकाशक: कदम प्रकाशन, दिल्ली
वर्ष: 2021
समीक्षक: अजय चौधरी
सामान्यतः कहा जाता है कि पीढ़ियों के बीच संवादहीनता समस्या की जड़ है। लेकिन इस उपन्यास में समस्या इससे भी गहरी है। यह बात न करने का मुद्दा नहीं है, बल्कि ‘महसूस न कर पाने’ का मुद्दा है। पुरानी और नई पीढ़ी के ‘सत्य’ अलग-अलग हो गए हैं। जो रामेश्वर के लिए ‘मर्यादा’ है, वह बच्चों के लिए ‘दकियानूसीपन’ है। जो बच्चों के लिए ‘करियर’ है, वह पिता के लिए ‘स्वार्थ’ है। जब जीवन को देखने के नजरिये में इतना मौलिक अंतर आ जाए, तो संवाद होने पर भी एक-दूसरे को समझा नहीं जा सकता। यह उपन्यास ‘समानुभूति की मृत्यु’ को दर्शाता है, जहाँ एक ही खून के लोग एक-दूसरे के दर्द को डिकोड करने में असमर्थ हो जाते हैं। उपन्यास के विघटन में पुरुष पात्रों के अहंकार की बड़ी भूमिका है। रामेश्वर का अहंकार यह है कि परिवार उनके बनाए नियमों पर ही चलना चाहिए; उनका ‘निर्णय’ अंतिम होना चाहिए। दूसरी ओर, दिनेश का अहंकार उसकी नई अर्जित आर्थिक स्वतंत्रता और आधुनिक ज्ञान से उपजा है। यह दो पीढ़ियों के पुरुषों के बीच सत्ता संघर्ष है। यदि रामेश्वर थोड़ा लचीलापन दिखाते या दिनेश थोड़ा अधिक धैर्य दिखाता, तो शायद विघटन इतना पीड़ादायक न होता। स्त्रियाँ अक्सर इस पुरुष अहं के टकराव में उत्प्रेरक या पीड़ित की भूमिका निभाती नजर आती हैं। ‘विघटन’ एक चेतावनी है कि यदि हमने आधुनिकता और परंपरा, व्यक्तिवाद और सामूहिकता के बीच संतुलन नहीं साधा, तो हम एक ऐसे समाज का निर्माण करेंगे जहाँ हमारे पास सुख-सुविधाओं के सारे साधन तो होंगे, लेकिन अपना दुख बाँटने के लिए कोई अपना नहीं होगा।
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